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तप की मंगलमयता
'विघ्नविनाशकं कर्म मंगलम्' -- विघ्न की विनाशक क्रिया मंगल है | उसी तरह कल्याण की प्राप्ति कराने वाली जो क्रिया है वह भी मंगल है | मंगल के ये दो भेद हैं- द्रव्यमंगल और भावमंगल ।
संसार के व्यवहार में आने वाले विघ्नों को दूर कर भौतिक- लौकिक सुख दिलाने वाला द्रव्यमंगल है तथा प्रात्मिक विकास में बाधक ऐसे अप्रशस्त भावों को दूर कर शाश्वत मोक्षसुख को दिलाने वाला भावमंगल है | तप में द्रव्यमंगल और भावमंगल इन दोनों की दिव्यशक्ति निहित है । इसलिये तप भी सर्वश्रेष्ठ मंगल है | ऐसे मंगलमय तप से विघ्न की परम्परा दूर होती है और अन्त में परमपद की प्राप्ति होती है ।
तप का विशिष्ट स्थान
जैनधर्म में विविध प्रकार से तप का विशिष्ट स्थान है । तप बिना धर्म का स्वरूप परिपूर्णता को नहीं पा सकता । श्रुतकेवली श्रीशय्यंभवसूरिमहाराजाने स्वरचित श्रीदशवेकालिकसूत्र में द्रुमपुष्पिका नामक प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा में कहा है कि
" धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो ।"
श्रीसिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन - २५७