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_* सकलसिद्धिदायक श्रीसिद्धचक्र-नवपद की आराधना में भी तप का स्थान है।
___* अरिहंतपद प्रादि वीशस्थानकपद की आराधना में भी तप का स्थान है।
इत्यादि विविध प्रकारे तप का विशिष्ट स्थान जैनशास्त्रों में स्थले-स्थले दृष्टिगोचर होता है ।
तर के प्रकार-भेद
श्रीजिनेन्द्र-तीर्थंकर भगवन्त के शासन में मोक्ष के सच्चे उपाय के रूप में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की संयुक्त उपासना प्रतिपादित की गई है । यद्यपि उनमें तप का स्पष्ट उल्लेख नहीं है तथापि चारित्रप्राप्ति में, साधना में तथा चारित्र-रक्षण में एवं उसकी अभिवृद्धि में तप का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । चारित्रसंयम को संवर का कारण तथा तप को निर्जरा का कारण कहा है। पूर्वधर महर्षि वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराजा ने श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में इस सम्बन्ध में स्पष्टपने कहा है कि--'तपसा निर्जरा च' तप से कर्म की निर्जरा होती है और ('च' से) संवर भी तप से होता है । इससे संवर तथा निर्जरा के लिये तप अति आवश्यक है ।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२५६