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दर्शन-सम्यक्त्व की करणी न कर सके, तो भी सर्वज्ञ विभु श्रीजिनेश्वरदेव के वचनों पर रुचि रखे, वह 'रोचक सम्यक्त्व' है ।
(३) जो आत्मा स्वयं श्रद्धाहीन होने पर भी दूसरे को समझाने में कुशल-होशियार हो, उससे दूसरे को सम्यक्त्व-समकित प्राप्त कराना, वह 'दीपक सम्यक्त्व' है । जैसे दीपक दूसरे को प्रकाश देता है, लेकिन उसके नीचे अंधेरा है। ऐसे इधर भी श्रद्धाहीन अभव्य जीव हैं। उनको भी यही दीपक सम्यक्त्व होता है। अन्य तीन प्रकार में (१) औपशमिक सम्यक्त्व, (२) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और (३) क्षायिक सम्यक्त्व भी आते हैं ।
श्रीसम्यग्दर्शन की उपमाएँ (१) सम्यग्दर्शन को 'धर्म वृक्ष का मूल' कहा है । जब वृक्ष का मूल मजबूत होता है तब वृक्ष भी मजबूत होता है। धर्मवृक्ष की मजबूती का आधार दृढ़ सम्यक्त्व ही है। जिस प्रकार मूल की शुद्धि के बिना वृक्ष नहीं खिलता-विकस्वर नहीं होता, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनसम्यक्त्व बिना आत्मा को वास्तविक सद्धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
(२) सम्यग्दर्शन को 'धर्म नगर का प्रवेश द्वार' कहा
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१४८