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करता है वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । जो वस्तु का सच्चा स्वरूप नहीं जनाता है वह ज्ञान मिथ्या असत्य ज्ञान अज्ञान रूप है ।
सर्वज्ञ श्रीजिनेश्वर तीर्थंकर भगवन्त के शासन में सम्यग्ज्ञान के पांच भेद प्रतिपादित किये हैं । वे इस तरह हैं - - ( १ ) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, ( ४ ) मनः पर्यवज्ञान और ( ५ ) केवलज्ञान । पाँचों का क्रमशः संक्षेप में वर्णन करते हैं---
(३) अवधिज्ञान,
अब इन
. (१) मतिज्ञान
आत्माको योग्य देश में रही हुई नियत वस्तु का पाँचों इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है वह 'मतिज्ञान' कहा जाता है । इसका दूसरा नाम 'आभिनि
बोधक' भी है ।
"अभिनिबुध्यते इति ग्राभिनिबोधकम् "
सन्मुख रहे हुए नियत पदार्थ को जो जनाता है उसको 'प्राभिनिबोधक ज्ञान' कहते हैं ।
इस मतिज्ञान के अट्ठाईस (२८) भेद हैं । मूल चार भेद हैं (१) अर्थावग्रह, ( २ ) ईहा, (३) अपाय और ( ४ ) धारणा | अर्थावग्रह के दो भेद हैं (१) व्यंजनावग्रह और (२) अर्थावग्रह | व्यंजनाग्रवह के चार भेद हैं
श्रीसिद्धचक्र- नवपदस्वरूपदर्शन - १६८