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भी भाव सम्यक्त्व की विशुद्धि अनंत गुणी श्रागमशास्त्र में कही गई है । इसलिये भाव सम्यक्त्व - प्राप्ति के बारे में जिनागम - जैन श्रागमशास्त्रों का ज्ञान अनिवार्य है । श्री अरिहंतादि पञ्च परमेष्ठी का मूल श्रीसम्यग्दर्शन होने पर भी सम्यग्दर्शन का मूल सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान बिना सम्यग् श्रद्धा भी स्थिर नहीं रह सकती है। इसलिये सम्यग्श्रद्धा महामहोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज ने श्रीनवपदजी की पूजा के अन्तर्गत सप्तम 'श्रीज्ञानपद पूजा' में कहा है कि -
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" सकल क्रियानुं मूल जे श्रद्धा,
तेहनुं मूल जे कहीए ।
तेह ज्ञान नित नित वंदीजे,
ते विरण कहो केम रहीए रे ।। भविका ! सिद्धचक्र पद वंदो || ३ || "
सभी क्रियाओं का मूल 'श्रद्धा' है, उसका मूल जो कहा जाता है वह 'ज्ञान' है । उसको अहर्निश वन्दन करना । कहिए -- उस बिना कैसे रह सकते हो ? ।। ३ ।।
ज्ञानमूलक श्रद्धा दृढ़ और निश्चल रहती है । श्रात्मा में जो नव तत्त्व का जानपना हो तो श्रद्धा भी स्थिर रह सकती है । अज्ञानी क्या कर सकता है ? उसको तो पुण्य-पाप की जानकारी भी नहीं हो सकती है । ज्ञानी
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन- १६६