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जिसके बिना ज्ञान भी अप्रमाण है, चारित्र भी निष्फल है और मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं होती ऐसे सम्यग्दर्शन को हम नमन कर रहे हैं ।। ७३ ।।
जं सद्दहरणलख्ख, भूसरणपमुहेहि बहु य भेएहि । वनिजइ समयंमि, तं सम्मं दंसरणं नमिमो ॥ ७४ ।।
सिद्धान्त में सद्दहणा, लक्षण और भूषण आदि अनेक भेदों द्वारा जिसका वर्णन किया है उस सम्यग्दर्शन को हम नमन कर रहे हैं ।। ७४ ।।
न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महामहोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज ने भी 'श्रीनवपदजी' की पूजा में श्रीसम्यग्दर्शन पद को नमस्कार करते हुए कहा है कि---
जिणुत्ततत्ते रुइलक्खरणस्स, नमो नमो निम्मलदंसरणस्स । मिच्छत्तनासाइसमुग्गमस्स, मूलस्स सद्धम्ममहाद्रुमस्स ॥६॥
जिसका जिनेश्वर भगवन्त कथित जीवाजीवादि नव तत्त्व में या शुद्ध देवादिक तीन तत्त्व में रुचि-श्रद्धान रूप लक्षण है, मिथ्यात्व, कषाय आदि को दूर करने से जिसका आविर्भाव हो सकता है तथा जो ज्ञान-चारित्ररूप महाधर्म का मूल है, ऐसे निर्मल दर्शन-सम्यक्त्व को वारंवार नमस्कार हो ।। ६ ।।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१६१