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(१४) उपर्युक्त भूमि में दुर्भिक्ष- दुष्काल नहीं होता है ।
(१५) स्वचक्रभय अर्थात् अपने राज्य की सेना ( लश्कर ) का भय तथा परचक्रभय अर्थात् अन्य राज्य के साथ संग्राम आदि होने का भय उत्पन्न नहीं होता है ।
इस तरह कर्मक्षयजन्य ग्यारह अतिशय ( क्रम संख्या पाँच से पन्द्रह तक ) समझने चाहिये ।
देवकृत उन्नीस अतिशय
(१६) श्री अरिहन्त - तीर्थंकर भगवन्त जिस स्थल पर विचरते हैं उस जगह आकाश में धर्मचक्र प्रभु के आगेश्रागे चलता रहता है ।
( १७ ) आकाश में श्वेत चामर दोनों तरफ चलते हैं ।
(१८) आकाश में निर्मल स्फटिकमणिरत्नरचित पादपीठयुक्त सिंहासन चलता रहता है ।
( १९ ) आकाश में प्रभु के मस्तक पर तीन छत्र रहते हैं ।
( २० ) आकाश में रत्नमय धर्मध्वज भगवान के आगे चलता है । यह धर्मध्वज प्रति महान् होने से इन्द्रध्वज भी कहलाता है ।
श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन- ३७