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अब अपायापगमातिशयादि चार मुख्य मूल अतिशयों का वर्णन करते हैं
अतिशय अर्थात् उत्कृष्टता वाले, विशिष्ट चमत्कार वाले गुण । (१) अपायापगमातिशय
अपाय अर्थात् उपद्रव, उनका अपगम अर्थात् विनाश । वह दो प्रकार का है । स्वाश्रयो और पराश्रयो ।
(अ) स्वाश्रयी अर्थात् अपने सम्बन्ध में अपाय अर्थात् उपद्रव का द्रव्य से और भाव से विनाश किया है जिसने वह ।
द्रव्य उपद्रव-सर्व रोगों का जिसके विनाश हो गया है।
भाव उपद्रव-अन्तरंग के अठारह दूषणों का जिसने विनाश किया है । वे निम्नलिखित हैं
(१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय, (५) वीर्यान्तराय, (६) हास्य, (७) रति, (८) अरति, (६) भय, (१०) शोक, (११) जुगुप्सा-निन्दा, (१२) काम, (१३) मिथ्यात्व, (१४) अज्ञान, (१५) निद्रा, (१६) अविरति, (१७) राग और (१८) द्वेष ।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२५