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[ ] रक्खें या पात्र, वह एक सी वात है । एक नग्न के लिये उपयुक्त हैं, दूसरा वस्त्र वालों के लिये ।
जैन---संभवतः कमण्डल रखना यह सन्यासियों का अनुकरण है। प्रति लेखना की अपेक्षा से तो पात्र रखना जैन मुनि के लिये अधिक उपयुक्त है इसके अलावा दिगम्बर शास्त्रों में पात्र के लिये तिरोहित विधान भी मिलता है । जैसे
-तब वाल बुड्ढ सुय आयराहं 'दुब्बल तणुरोह दुहांयरांह। श्रोसह पय पच्छाय जोगु जासु, दहविणु विजावचंगु तासु ॥ किरंतो णिदियो मुणिंदु । हुओ णदिमितु नाम जियणिंदु ।
(घत्ताबंध-हरिवंश पुराण ) माने-तपस्वी बाल बृद्ध श्रुतधर आचार्य दुर्बल और रोगी वगैरह की आहार पानी और औषधि श्रादि से वैयावृत्य करने का विधान है। जो पात्र रखने से ही साध्य है । सर्वथा शक्ति रहित और बीमार साधु की वैयावृत्य करने की शास्त्रों की प्राज्ञा है । वह उठ भी नहीं सकता है जब दूसरा मुनि पात्र द्वारा शुद्ध आहार पानी लाकर उसकी वैयावृत्य करे तब वह आहार पानी ले सकता है, इस हालत में वैयावृत्य की सफलता है एवं पात्र रखना ही अनिवार्य है।
२-मुनि आहार पानी से वैयावृत्य करे । ( पूजापाठ)
माने-मुनि पात्र के जरिये लाये हुए आहार पानी से प्राचार्य की भक्ति करे साधर्मिक (मुनि) की भक्ति करे।
३-रात्रौ ग्लानेन भूक्ते स्यादेकस्मिं श्च चतुर्विधे । उपवासः प्रदातव्यः षष्ठमेव यथा क्रमम् । ३३ ॥ टीका-रात्रौ निशि । ग्लानेन व्याधि विशेष परिश्रम विविधो. पवासादि परिपीडितेन सता कर्मोदय वशात् प्राणसंकरे। भुक्ते,