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[...] - दिगम्बर शास्त्रों में भी स्त्री के असहयोगी कुछ बताये गये हैं। जैसा कि
वेदा हारोत्तिय, सगुणो णवरं संढ थी खवगे। किएह दुग-सुहतिलेसिय वामेवि णं तित्थयरस ॥ अर्थ-वेद से पाहार तक की मार्गणाओं में स्वगुण स्थान की सत्ता है विशेषता इतनी ही है कि क्षपक श्रेणी में चढने वाले नपुंसक स्त्री और पांच लेश्या वाले मिथ्यात्वी को सत्ता में तीर्थकर प्रकृति नहीं होती है। माने स्त्री क्षपक श्रेणी में चढती है किन्तु तीर्थकर नहीं बनती है।
(गोम्म कम्म गा० ३५४) मणुसिणी पमत्तविरदे, आहार दुगं तु णत्थि णियमेण ।
(गोम्मट सार नीव कांड गा• ०१७) अर्थ-मानुषीणी छटे गुण स्थान को पाती है किन्तु उसको आहारकाद्विक (पं० गोपालदासजी वरैया के भाषा पाठ के अनु. सार आहारक शरीर अंगोपांग ) नहीं होता है।
वेदाहारोत्तिय सगुण ठाणाण मोष आलाओ । णवरिय संढि-त्थीणं, णत्थि हु आहारगाण दुगं ॥ अर्थ-वेद से आहार तक की १० मार्गणाओं में ख ख गुण स्थान के अनुसार आलावा होते हैं । फरक इतना ही है कि नपुं. और स्त्री को आहारकद्विक (आहारककाययोग आहारक मिश्रकाय योग, भा० टी० ) नहीं है। ___माने स्त्री छटे गुण स्थान में जाती हैं, किन्तु उसे आहारक द्विक नहीं होता है।
यहां श्राहारक और तीर्थकर प्रकृति के निषेध करने पर भी दीक्षा तपकश्रेणी या केवलज्ञान का निषेध नहीं किया है। कारण