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भाभावादा। प्रोघपमाणं ण पाति त्ति जाणावणटुं सुत्ते संखेन णिइसो को । णपुंसयवेद उवसामगा पंच ५, खवगा दस १० । इथिवेद णपुंसय वेदे पमत्ता अपमत्ता च ऐत्तिया चेव होंति त्ति संपहि ( संप्रति ) उवएसो णात्थ । पृ० ४१६ ।
अर्थ-प्रमत्त संयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्ति बादर सांप रायिक प्रविष्ट उपशमक और क्षपक गुण स्थानक तक (नपुंसक ) जीव द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं । ॥ १३० ॥ पृ० ४.८॥
मूलम्-सजोगिकेवली अोघं । सू० १३४ ॥ टीका-सव्यपरत्थाणं पथदं ( अल्पवाहुत्वं प्रकृतं ) । सव्वत्थावा णपुंसय वेदुवसामगा, ( तेसिं ) खवगा संखज गुणा । इत्थि वेदुव. सामगा तत्तिया चव, तसि खवगा संखजगुणा । पुरिस वदुवसा मगा संखज गुणा । तेसिं खवगा संखज्ज गुणा । णपुंसय वदे। अमत्त संजदा संखजगुणा. तम्हि चव पमत्तसंजदा संखेज गुणा, इत्थिवदे अप्पमत संजदा संखज गुणा, तम्हि चव पमत्तसंजदा संखज गुणा । सजोगि कवली संखेज्ज गुणा । (पृ० ४२२)
इन सब सूत्र पाठो से स्पष्ट है कि-पुरुष १८८ स्त्री २० और नपुंसक १० क्षपक श्रेणी करते हैं एवं मोक्ष में जाते हैं।
(षट खंडागम-जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणुगम,
धवला टीका, मुद्रित पुस्तक ३ रा ) वीसा नपुंसगवेया, इत्थीवया य हुंति चालीसा । पुंवेदा अडयाला, सिद्धा इक्कम्मि समयम्मि ॥
अर्थ-एक समय में एक साथ में षंढ २०, स्त्री ४०, ओर पुरुष ४८ सिद्ध होते है । माने-स्त्री और नपुंसक भी मोक्ष में जाते हैं।
इन सब पाठों से निर्विवाद सिद्ध है कि दिगम्बर शास्त्र स्त्री. दीक्षा और स्त्री मुक्ति के पक्ष में हैं।
दिगम्बर-यह तो मानना ही पड़ेगा, कि स्त्री केबलिनी बनती है तो तीर्थकर भी बन सकती है !
जैन यद्यपि एसा होता नहीं है किन्तु अनन्त काल व्यर्तात होने के बाद कभी स्त्री भी तर्थिकर हो जाती है । मगर उस घटना