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दिगम्बर - तीर्थकर भगवानको ४ घातिकर्मके क्षय होने से १० अतिशय उत्पन्न होते हैं । वें हैं -११ चारसो कोश अकाल न पड़े १२ आकाशमें चले १३ प्राणि वध न होवे १४ कवलाहारका अभाव १५ उपसर्ग का अभाव १६ चतुर्मुखता १७ सर्व विद्यामें प्रभुत्व ९८ प्रतिबिम्ब न पडे १९ आँखों में मेशोन्मेशका अभाव (आंखोकी टीमकार न लगे) २० नख केश बढ़ें नहीं ।
और इनके जरिये
ये अतिशय तीर्थंकरको ही होते है, केवली को नहीं होते हैं अत एव ये तीर्थंकरके अतिशय गिने जाते हैं तीर्थकर भगवान की विशेषता कही जाती है । बात भी ठीक है कि केवली भगवान को ४०० कोश तक सुभीक्षता, चतुर्मुखता वगैरह अतिशय नहीं होते हैं ।
आ० पूज्यपाद फरमाते हैं कि - "स्वातिशयगुणा भगवतो (श्लो० ३८ ) " पं. लालाराम जैन शास्त्री साफ २ बताते हैं कि--ये दश अतिशय भगवान तीर्थकर परमदेव घातिया कर्मों के नाश होने पर होते हैं (पृ. १४७)
जैन - यह तयशुदा बात है कि ये अतिशय तीर्थकरके हैं, केवल नहीं हैं । अतः केवली भगवानके लिये कवलाहार और उपसर्गका अभाव बताना भी भ्रम हो है । जो कि वह वस्तु केवली अधिकार में सप्रमाण स्पष्ट कर दी गई है । अस्तु
अब रही तीर्थकरदेव की बात । तीर्थकरोंके इन अतिशयों में कई अतिशय सिर्फ कल्पनारूप ही हैं क्योंकि इनके खिलाफ में दिगम्बर शास्त्र प्रमाण मिलते हैं ।
दिगम्बर- मानलिया जाय कि सुभीक्षताके लिये कुछ कम क्षेत्र होगा किन्तु तीर्थकरदेव आकाशमें विहार करते हैं, यह तो ठीक है ।
जैन- -गत केवलीअधिकार में केवली भगवान् भूमि पर विहार करते हैं और शिलापट्ट पर बैठते हैं यह उल्लेख कर दिया गया है वास्तव में तीर्थंकर भगवानके लिये भी वैसा ही है । वे आसन पर बैठते हैं और भूमि पर पैर धर कर विहार करते हैं फरक इतना ही है कि उनके पैरके नीचे देव कमलोंकी रचना करते है।