Book Title: Shwetambar Digambar Part 01 And 02
Author(s): Darshanvijay
Publisher: Mafatlal Manekchand

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Page 265
________________ ११६ जैसा कि १ आचार्य कुंदकुंदस्वामी श्रीसीमंधर तीर्थकरको अरज करते हैं। श्वेतवासधराः स्वामिन् , स्वमतस्थापने रताः। मिथ्यात्वपोषकाः मान-माया-मात्सर्यसंभृताः ॥२४७॥ - जैनग्रन्था न दृष्यन्ते ॥२४८॥ माने-आज जो जिन-आगम विद्यमान हैं वे श्वेताम्बरके ही पोषक हैं, दिगम्बर के पोषक कोई भी जैन शास्त्र विद्यमान नहीं है (२४६ से २४८)। सिद्धान्तान् प्रकटीचक्रे, पुनः सोऽपि यतीश्वरः ॥३४४॥ आचार्य कुन्दकुन्दस्वामिने नये सिद्धान्त जाहिर किये । पृ०७९ । इत्यादि सकलान् ग्रन्थान् , चेलकान्त सुधर्मभाक् । करिष्यति प्रभावार्थ, जिनधर्मस्य धर्मधीः ॥३५२॥ वस्त्रका विरोध करनेवाले और सद्धर्मको भजनेवाले आचार्य कुन्दकुन्दस्वामीजी, दिगम्बर जैन धर्मको प्रभावनाके लीये उन्हीं सर्वग्रन्थों का निर्माण करेगा । (३५२, पृ० ८०) स्वामोजी को ७०० साधु हुए, उन्होंने गीरनार तीर्थ की यात्रा की और श्वेताम्बर शुक्लाचार्य से शास्त्रार्थ किया। (३५७से४३८) यह शास्त्रार्थ वि० सं० १३६ में श्वेताम्बरो से हुआथा। (श्लोक १४७ से १७९) सीमंधर जिनेन्द्रस्य, दर्शकः संयताग्रणीः । नाम्ना श्रीकुंदकुंदो वै जिनधर्म प्रकाशकः ॥६९०॥ मा० कुंदकुंदने जैनधर्म प्रकाशित किया (६९०) * इस शास्त्रार्थ में आचार्य कुन्दकुन्दको जय नहीं प्राप्त हुआ थायहविध बहु विवाद हुओ पण कोई न हारे । पद्मनंदी राय तदा पण एम विचारे ॥ शास्त्रवाद नहीं यहां तो मंत्रवाद सुखकारे...... ॥५॥ नेमि जिनेश्वर तणी यक्षिणी गोमुख राणी ॥६॥ (सं. १६३. का• शु० १३ रविवार को कारंजा के श्रीचंद्रप्रभु मंदिरमै दिगम्बर विद्यासागर कृत रास, सूर्यप्रकाश पृ. ८१ से ८४ फूटनोट)

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