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तीर्थकर की हैसियत से वे २४ एकसे हैं अतः उनका पुल्लिंग शब्दप्रयोग किया जाता है । जो ठीक भी है। ऐसा करनेसे ग्रन्थ कर्त्ताओ को बड़ी सुभीता रहती है, बात तो यह है कि वे न पुरुषवेदी हैं न स्त्रीवेदी हैं न नपुंसकवेदी हैं, और सबके जीव शब्द तो पुल्लिंग ही है अतः इनका पुल्लिंग से परिचय देना अधिक उचित जान पड़ता है । फिर भी कोई भूतसंज्ञा के जरिए तीर्थकरीके लिये स्त्रीलिंग का शब्दप्रयोग करे तो वह भी अनुचित तो है ही ।
दिगम्बर आचार्य भी भूतसंज्ञासे स्त्रीप्रयोगका स्वीकार करते हैं। देखिये –
अवगय वेदे मणुसिणि सण्णा, भूतगदिमासेज ॥७१४॥ अवेदी बनने के बाद भूतसंज्ञा के जरिये उसे मनुषिणी कही जाय ।
( गोमटसार, जीवकांड गा० ७१४ ) वास्तव में मल्लीनाथ तीर्थकर का पुल्लिंग स्त्रीलिंग इन दोनोंसे प्रयोग किया जाना उचित है, व्यवहार सापेक्ष है ।
दिगम्बर- - क्या १ से अधिक 'तीर्थकरी' भी हो सकती है ? जैन - हां ! श्री पन्नवणाजी में '२ तीर्थकरी' का भी उल्लेख है ।
दिगम्बर- चौत्तीश अतीशयो में ऐसा एक भी अतिशय नहीं है कि जो स्त्री तीर्थंकरकी मना करे । माने-३४ अतिशयोंके जरिए 'तीर्थकरी' होना ना मुमकीन बात नहीं है
जैन - याद रहे कि - मल्लीनाथ भगवान् 'स्त्रीवेद' में हुए, वही 'आश्चर्य' माना जाता है ।
दिगम्बर - श्वेताम्बर कहते हैं कि - (५) वासुदेव अपने क्षेत्र से बहार दूसरे क्षेत्रमें दूसरे द्वीप में जाता नहीं और दूसरे वासुदेव से मीलता नहीं है । किन्तु 'कृष्ण वासुदेव' द्रौपदी को लाने के लीये दो लाख प्रमाण लवण समुद्र को पार करके धातकीखण्डके भरतक्षेत्र की 'अपर कंका' में गये, पद्मोत्तर को नरसिंहरूप से जित कर द्रौपदी को लेकर वापिस आये, उन्होंने वापिस आते आते शंख बजाया, जिसको सून कर वहांके 'कपिल वासुदेव'ने भी