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वास्तव में १६ की संख्या भी उसी तरह ही बन गई है । (४) पं. दोलतरामजीने आदिपुराण पर्व ४७ की वचनीका पृ-२४ में पं. सदासुखजीने रत्नकरंड श्रावकाचार भाषा वचनीका षोडशभावना विवेचन पृ० २४१ में; और पं० परमेष्टोदास न्यायतीर्थजी ने चर्चासागर समीक्षा पृ. २४१ में, बताया है कि
"भगवान् गुणपाल तीच कल्याणक के धारक हैं, महाविदेह क्षेत्र में तीर्थकरों के कल्याणक पांच भी होय तीन भी होय और केवल निर्वाण दोय भी होय" ।
इस दिगम्बरी मान्यता के अनुसार न च्यवन-कल्याणक नियत है न स्वप्नों के आनेका ही नीयत है । जब तो स्वप्न १४ हो तो भी क्या ? और १६ होवे तो भी क्या ? दिगम्बर समाज के लिये तो यह चर्चा ही निरर्थक है ।
श्वेताम्बर समाज तीर्थंकर के ५ कल्याणकों को नियत रूपसे ही मानता है, १४ स्वप्नों को भी बिना विसंवाद एकरूपसे ही मानता है । ईस हिसाब से श्वेताम्बर समाज सर्वथा सुव्यवस्थित है ।
(५) स्वप्नों का समुच्चय फल देखा जाय तो, १६ स्वप्नों का फल १६ देवलोक के अग्रभागमें गमन, और १४ स्वप्नोंका फल १४ राजलोकके अग्रभागमें गमन हो सकता है । इस हिसाब से १४ स्वप्न ही समुचित है ।
ये सब प्रमाण चौदह स्वप्नों के पक्ष में हैं ।
दिगम्बर - दिगम्बर ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी लीखते हैं कि- कवि पुष्पदंत के महापुराण में भ० ऋषभदेव के १०१ पुत्र माने हैं । जैन - दिगम्बर शास्त्र की रचना श्वेताम्बर शास्त्रो की अपेक्षा अर्वाचीन मानी जाती है, इस हालत में दिगम्बर विद्वान और कुछ २ साम्प्रदायिक भेद लीख देवे वह तो संभवित है । किन्तु यहां १०१ पुत्र क्यों माने गये ? वह समजमें आता नहीं है । अन्य दिगम्बर शास्त्र भगवान ऋषभदेव को १०० पुत्र थे ऐसा ही मानते हैं ।
दिगम्बर - श्वेताम्बर मानते हैं कि तीर्थंकर भगवान् दीक्षा लेनेके पहिले वार्षिक दान देते हैं ।