Book Title: Shwetambar Digambar Part 01 And 02
Author(s): Darshanvijay
Publisher: Mafatlal Manekchand

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Page 213
________________ ६४ जैन-तीर्थकर भगवान् कृपण होते नहीं है, दानी होते हैं। वे राज्यकालमें फुटकर दान देते रहते हैं दीक्षा लेने से पहिले परोपकारके लीये वार्षिकदान देते हैं, और सर्वज्ञ होनेके बाद धर्मोपदेश देते हैं दर्शन, ज्ञान व चारित्र का दान करते हैं । दिगम्बर आदिनाथ पुराणमें भी भगवान के दीक्षा समय में भगवान की आज्ञासे भरतचक्रीने दिया हुआ दानका अधिकार हैं । यह वार्षिक दानका नामान्तर ही है। दिगम्बर-आदिपुराण में उल्लेख है कि-भगवान् ऋषभदेवने नीलांजना देवीका नाच देख कर वैराग्य पाकर दीक्षा का स्वीकार किया। श्वेताम्बर वैसा मानते नहीं है। जैन-जो ७२ कलाओं का, जिन में नृत्य कलाका भी समावेश होता है, आदि सृष्टा है । जो कर्मभूमि और धर्मभूमिका आदि निर्माता है उन ऋषभदेव के वैराग्य के लिये दूसरे निमित्त को मानना, यह विचित्र समस्या है। तीर्थकर भगवान् तीन ज्ञानवाले होते हैं अपने दीक्षा काल को ठीक जानते ही हैं और स्वयंबुद्ध होते है। उन को बाह्य निमित्त की एकान्त अपेक्षा रहती नहीं है । यद्यपि लोका. न्तिक देव अपने आचार के अनुसार तीर्थकर देव को "दीक्षा लेकर तीर्थ प्रवर्तन करो" इत्यादि विनति करते हैं किन्तु भगवान् तो अपने ज्ञानसे दीक्षाकालको देखकर ही दीक्षा लेते हैं। ____ दिगम्बर- श्वेताम्बर मानते हैं कि-भगवान् ऋषभदेवने दीक्षा कालपर्यन्त देवानीतकल्पवृक्ष के फलोंका ही आहार किया था । जैन-देवो भक्ति से कल्पवृक्ष के फल लाते थे और भगवान् उन्हें खाते थे इसमें अजीव बात क्या है ? इन्द्रने भी भगवान् को ईख देकर इक्ष्वाकुवंश स्थापित किया है। यहाँ देवभक्ति की ही प्रधानता है। दिगम्बर भी कहते हैं कि-भगवान महावीरने देवोपनीत भोग भोगे हैं । (नि० ७). .. दिगम्बर-श्वेताम्बर मानते हैं कि-जब तीर्थकर भगवान् दीक्षा लेते हैं तब : इन्द्र उनके कंधे पर देवदुष्य-वस्त्र रख

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