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१२ आठ वर्ष की छोटी अवगाहनामें केवल ज्ञान पाये हुए केवली भगवान के शरीर की क्रमशः ५०० धनुष तक वृद्धि होते जाना, खाली: पेटको भरदेना, शाता अशाता वेदनीय के उदय को भोग लेना, भूख को शान्त करना और क्षुधा परिषह को जीतना, ये सब विकट समस्या है ।
"नोक आहार" तो विभव भाव में हैं । और कर्मयोगवाले जो कि अनाहारी हैं वे क्या विभव भाव में नहीं हैं ? यदि मनुष्य कवलाहार करते हैं तो क्या केवली भगवान् मनुष्य नहीं हैं ? क्या उनको मनुष्यायु मनुष्यगति और मानवी शरीर नहीं है ? यदि नोक वर्गणा ही आहार का कार्य करे तो गर्भको व्यवस्था निरर्थक है, ओर २ आहार भी निरर्थक है, देवों का मनोभोजन भी फिजूल है, और क्षुधापरिषद यह कल्पना ही है । न अशाता को मौका मिलेगा न क्षुधा लगेगी, न आहारशुद्धि का प्रश्न उठेगा, न परिषद ही होगी और न क्षुधा परिषह को जीतना पड़ेगा । मगर शास्त्र तो केवली के लिये लम्बा आयुष्य, शरीरवृद्धि, अशाता, भूख, तृषा, भूखपरिषह, रोग, चलना - विहार करना इत्यादि विधान करते हैं इतना ही नहीं किन्तु कई दिगम्बर शास्त्र तो कवलाहार का भी स्पष्ट उल्लेख करते हैं ।
इस हालत में केवली भगवान् नोकर्म्म वर्गणा का आहार लेते हैं, यह कबलाहार के विपक्षमें मनस्वी कल्पना ही है । दिगम्बर - केवली भगवान कथलाहार करें यह बात बुद्धिगम्य नहीं है ।
जैन - विना तेल दीपक जिस तरह नहीं जलता है उसी प्रकार विना आहार के शरीर नहीं टिकता है, यानी शरीर को आहार अनिवार्य हैं ।
केवली भगवान् को औदारिक शरीर है, बड़ा आयुष्य है, अशाता वेदनीय है, भूख है, आहारपर्याप्त है और लाभांतराय आदि का अभाव है ।
फिर क्या कारण है कि वे आहार न करें ? दिगम्बर - केवली भगवान को अनन्त ज्ञान है ।
जैन - ज्ञान और अज्ञान एकान्त विरोधि वस्तु है । अतः इन