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करके सातवें अप्रमत्त गुणस्थान में जाता है । इनमें ऐसी कोई प्रकृति नहीं है कि जिससे खाने-पीने का निषेध हो जाय ।
दिगम्बर-आहारक द्वय का उदय विच्छेद है।
जैन- इन आहारक द्वय से आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग का विच्छेद होता है, न कि आहारग्रहण का।
दिगम्बर-अप्रमत्त दशावाला क्या खावे पीवे ?
जैन-खाना प्रमाद नहीं है, खाते खाते तो शुद्ध भावना से कभी केवलज्ञान भी हो जाता है। अप्रमत्त को निद्रा और प्रचला का भी उदय होता है फिर खाने पीने का तो पूछना ही क्या ?
दिगम्बर-केवली भगवान् अनन्त वीर्यवाले हैं, अतः क्षुधा को दबा देवे।
जैन-जैसे वे आयुष्य को नहीं बढ़ा सकते हैं और न घटा सकते हैं, वैसे ही क्षुधा को भी नहीं दबा सकते। उनको लाभांतराय भोगांतराय या कोई अंतराय नहीं है अतः आहारप्राप्ति का अभाव नहीं है, फिर क्षुधा को क्यों दवावें ? अंतराय का क्षय होने से लब्धि होती है, किन्तु क्षुधा का अभाव नहीं होता है ।
दिगम्बर-तीर्थकर भगवान को स्वेद नहीं है तो आहार भी न होना चाहिये।
जैन-स्वेद तो निहार है, वह शरीर से निकलता है, आहार तो ग्रहण किया जाता है। इनकी समानता कैसे की जाय ? फिर भी केवलीको तो स्वेद होता है, आहार भी होता है।
दिगम्बर-भूख वेदनीय कर्म की सहकारिणी है !
जैन-नही, वेदनीय कर्म भूख का सहकारी है । वेदनीय कर्म का उदय विच्छेद होते ही भूख का भी अभाव हो जायगा ।
दिगम्बर-वेदनीय अघातिया कर्म है, मामूली है, वह उदय में आने पर भी कुछ नहीं करता है । और वे ११ परिषह भी उप. चार से हैं । (सर्वार्थसिद्धि ९-११)
जैन-कर्म घातिया हो या अघातिया मगर उदय में आने से अपना कार्य अवश्य करता है, इतना ही क्यों केवलीको