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तोर्थकरोंके शरीर का रहना, पूजा व अग्नि संस्कार होना यह तो दिगम्बर शास्त्रोमें स्वीकृत है, फिर उनकी दाढाऐं वगैरह को देव ले जाते हैं, यह तो भक्तिका कार्य है अतः यह होना भो ठीक मालूम होता है । सारांश-यह है कि केवली का शरीर कवलाहारले वर्धित एवं औदारिक होता है । सात धातु वाला होता है । और उसका अग्नि संस्कार होता है।
दिगम्बर-श्वेताम्बर मानते हैं कि केवली भगवानको उपसर्ग भी होते हैं।
जैन-दिगम्बर आचार्य “एकादशजिने” इस मोक्ष शास्त्र के सूत्रानुसार केवली भगवान् में ११ परिषह मानते हैं। पांडवोंने तप्तलोह शंखलाका और गजसुकुमालादि अन्तकृत् केवलीने अंगार आदिका परिषह सहा था यह बात दिगम्बर पुराणोमें उल्लिखित है। इसी ही तरह केवलीकी निर्भयता आदिकी परीक्षा करनेके लिये देवादि उपसर्ग करे तो संभवित है, यद्यपि वह आश्चर्य रूप है पर उपसर्ग होना संभवित है । वध, केवलीओंके ११ परिषहोंमेंसे एक है उसकी उपस्थिति में उपसर्ग का एकान्त अभाव कैसे माना जाय? दिगम्बर मतमें सिर्फ तीर्थंकरोंके लिये १५ वां उपसर्गाभावरूप अतिशय माना गया है जब केवलीओंको उपसर्ग होनेको स्वीकृति मिल ही जाती है । दिग०-क्या केवली के शरीर से दूसरे प्राणी का वध होता है?
जैन-केवली से चिकीर्षा पूर्वक प्राणिवध नहीं होता है किन्तु परिषहोंमें कभी अग्नि आदिके जीवोंको बाधा होती है, मच्छर आदि पुष्ट होते हैं, कभी उनमेसे किसीको नुकसान भी होता है।
दिग०-प्रायः दो केवली नहीं मिलते हैं, किन्तु अगर वे मिलें तो क्या परस्पर का विनय करते हैं ? विनय शुद्धि रखते हैं ?
जैन-केवली भगवान् अविनित रुखे या व्यवहार शून्य नहीं होते हैं, अतः तीर्थकर आदि का विनय करते हैं, व्यवहार शुद्धि भी रखते हैं, । इसके अलावा दुसरे जीवोंके आत्म कल्याणमें अपना अवश्यंभावी निमित्त होता है तो उनके लिये निमित्त रूप बनते हैं । जैसा कि केवली विहार करते हैं किन्तु व्यवहार शुद्धि के लिये रात्रि को विहार नहीं करते हैं । केवली बाहुबलीजीने