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प्रकृतिओं के बिना खोले यथार्थ ज्ञान होना मुश्किल है अतः इनका अलग २ विचार और समन्वय करना चाहिये ।
इसमें भी सबसे पहिले वेदनीय कर्म का विचार करो, कि बाद में और २ कर्म का विचार करना आसान हो जायगा ।
दिगम्बर - वेदनीय कर्म का बंध १३ वे गुणस्थान तक, उदय १४ वे गुणस्थान तक, उदीरणा छठे गुणस्थान तक, ( गी० क० गा० २७९ से २८१) और सत्ता १४ वे गुणस्थान तक होती है । इसकी शाता और अज्ञाता ये दो प्रकृतियां हैं । १४ वे गुणस्थान तक दोनों प्रकृतियां उदय में रह सकती हैं। यह "जीवविपाकी” कर्मप्रकृति है । जीवविपाकी ७८ हैं, जिनमें वेदनीय भी है । केवली भगवान को दोनों वेदनीय रहती हैं । जौर उसी के जरिये ११ परिषह होती हैं। देखिये
(१) मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषदाः ||८|| क्षुत् पिपासा० ||९|
एकादश जिने ॥। ११॥ वेदनीये शेषाः || १६॥
एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नेकोनविंशतिः ॥१७॥ (दिगम्बर मोक्षशास्त्र अध्याय ९) (२) उक्ता एकादश परीपहाः । तेभ्योऽन्ये शेषा वेदनीये सति भवन्तीति वाक्यशेषः । के पुनस्ते ?
क्षुत्-पिपास- शीतोष्ण-दंशमशक - चर्या - शय्या-वध-रोगतृणस्पर्श - मलपरीषहाः ।
( आ० पूज्यपाद अपरनाम आ० देवनन्दिकृत सर्वार्थ सिद्धि ) (३) (जिने) तेरहवें गुणस्थानवर्ति जिनमें अर्थात् केवल भगवानके ( एकादश) ग्यारह परिषह होती हैं । छद्मस्थ जीवों को वेदनीय कर्म के उदय से क्षुधा, २ तृषा, ३ शीत, ४ उष्ण, ५ दंश मशक, ६ चर्या, ७ शय्या, ८ वध, ९ रोग, १० तृणस्पर्श और ११ मल ये ग्यारह परिषह होती है, सो केवली भगवान के भी वेदनीय का उदय है, इस कारण केवली को भी ११ परिषह aar कहा है ।
- ( श्रीयुत पन्नालालजीकृत मोक्षशास्त्र भाषा टीका जनग्रंथ रत्नाकर, ११ वां रत्न, पृष्ट ८३ )