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५ डंसमस्कपरीषह-डन्स मस्क माखी तनु काटें, पी. वन पक्षी बहुतेरे । डसें व्याल विष हारे विच्छू, लगें खजूरे आन घनेरे ॥ सिंह स्याल सुन्डाल सता, रीछ रोज दुख देहिं घनेरे । ऐसे कष्ट सह सम भावन, ते मुनिराज हरो अघ मेरे ॥७॥
६ चर्यापरीषह-चार हात परवान परख पथ, चलत दृष्टि इत ऊत नहीं तानें । कोमल चरण कठिन धरती पर, धरत धीर बाधा नहीं मानें ॥नाग तुरङ्ग पालकी चढ़ते, ते सर्वादि याद नहीं आने । यो मुनिराज सहैं चर्या दुःख, तब दृढकर्म कुलाचल भानें ॥
७ शयनपरीषह-जो प्रधान सोनेके महलन, सुन्दर सेज सोय सुख जोवें। ते अब अचल अंग एकासन, कोमल कठिन भूमि पर सोवें ॥ पाहन खण्ड कठोर कांकरी, गडत कोर कायर नहीं होवें। पांचो शयन परीषह जीते, ते मुनि कर्म कालिमा धोवै ॥१२॥
८ वधबन्धनपरीषह-निरपराध निर्वैर महामुनि, तिनको दुष्ट लोग मिलि मारें। कोई बँच खम्भ से बाधैं, कोई पावक में परजारें ॥ तहां कोप करते न कदाचित् , पूरव कर्म विपाक विचारें। समरथ होय सह बध बन्धन, ते गुरु भव भव शरण हमारे ॥१३॥
९ रोगपरीषह-बात पित्त कफ श्रोणित चारों, ये जब घर्ट ब. तनु माहीं। रोग संयोग शोक जब उपजत, जगत जाव कायर हो जाहीं ॥ ऐसी ब्याधि बेदना दारुण, सहैं सूर उपचार न चाहीं। आतम लीन विरक्त देह सां, जैन यती निज नेम निबाही ॥१८॥
१० सृणस्पर्शपरीषह-सूखे तृण अरु तीक्ष्ण कांटे, कठिन कांकरी पांय विदाएँ। रज उड़ आन पड़े लोचनमें, तीर फांस तनु पीर बिंथार ॥ तापर पर सहाय नहीं बांछत, अपने करसे काढ न डाएँ । यों तृणपरस परीषह विजयी, ते गुरु भव भव शरण हमारें ॥१९॥
११ मलपरीषह-यावजीव जल न्हौन तजो जिन, नग्न रूप बन थान खड़े हैं। चलै पसेव धूप की वेला, उड़त धूल सब अंग भरे हैं ॥ मलिन देह को देख महामुनि, मलिन भाव उर नाहिं करें हैं। यो मल जनित परीषह नीते तिनहिं हाथ हम शीष धरे हैं ॥२०॥