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शानावरणी ते दोइ प्रज्ञा अज्ञान होइ एक महामोह ते अदशन बखानिये। अन्तराय कर्म सेती उपजै अलाभ दुःख सप्त चारित्र मोहनी केवल जानिये ॥ नगन निषद्या नारि मान सन्मान गारि यांचना अरति सब ग्यारह ठीक ठानिये। एकादश बाकी रहीं वेदना उदयसे कहीं बाईस परीषह उदय ऐसे उर आनिये ॥२५॥
अडिल्ल-एक बार इन माहिं एक मुनिकै कही। सब उन्नीस उत्कृष्ट उदय आवें सही॥ आसन शयन बिहाय दाय इन माहिंकी। शीत उष्णमें एक तीन य नाहिं की ॥२६॥
(बाईस परिषह ३६, जैन सिद्धांत संग्रह पृ० १७२) जैन–४ कर्म, ४२ प्रकृति और ११ परिषह ये केवली भगवान के वर्तन के विषय में अच्छा प्रकाश डालते हैं। इनसे मानना होगा कि केवली भगवान चलते हैं, बोलते हैं, खाते हैं, पीते हैं, मल छोड़ते हैं, रोगी होते हैं और वध परिषह को पाते हैं वगैरह ॥
यह भी निर्विवाद होता है कि केवलि भगवान में अज्ञान, क्रोध, मद, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, निन्द्रा, हिंसा, झूठ, चोरी, प्रेम, क्रीडा और ईर्षा ये १८ दूषण नहीं रहते हैं।
___ (आ० नेमिचन्द्रसूरिकृत प्रवचनसारोद्धार गा० ४५१-४५२) दिगम्बर-केवली भगवान् खोते पीते नहीं हैं, यद्यपि अज्ञान वगैरह १८ दूषण हैं वे दूषण ही है साथ २ में भूख, प्यास, रोग, मृत्यु, स्वेद आदि भी केवली भगवान के दूषण ही हैं। अतः १८ दुषण में इनको भी जोड़ देना चाहिये।
आ० कुन्दकुन्द लिखते हैं किजर वाहि जम्म मरणं चउगइगमणं च पुण्णपावं च । हंतूण दोस कम्मे, हुओ नाणमयं च अरिहंतो ॥३०॥ जर वाहि दुःख रहियं, आहार निहार वज्जियं विमलं । सिंहाण खेल सेदो, णत्थि दुगंछा य दोसो य ॥३७॥
___ (बोधप्राभृत पृ० ९६-१०३) इस हिसाब से १८ दूषण ये हैं-भूख, प्यास, भय, द्वेष, राग, मोह, चिन्ता, जरा, रोग, मृत्यु, खेद, स्वेद, मद, अरति, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद।