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गुणस्थानकी व्यवस्था द्वारा ही हो सकता है। केवली भगवानमें जिस २ कर्मप्रकृतिका उदय विच्छेद हो जाता है, उस २के कार्य का भी अभाव हो जाता है, यह सीधी-सादी बात है। तो आप उनकी उदय प्रकृति और उदय विच्छेद प्रकृति का विश्लेष करें, जिससे-केवलीओंकी रहन-सहन और प्रवृत्ति का बहुत खुलासा मिल जायगा।
दिगम्बर-केवली भगवानको १२२ उदय प्रकृतिमें से घातीये ४ कर्मकी सब प्रकृतियाँ और अघातिये ३ कर्मकी कुछ २ प्रकृतियां एवं ८० कर्मप्रकृतिओंका "उदय विच्छेद" हो जाता है, जो इस प्रकार है।
(१) १ मिथ्यात्वमोहनीय, २ आतप, ३-५ सूक्ष्मादि तीन । (२) ६-९ अनन्तानुबन्धी चार, १० स्थावर, ११ एकेन्द्रियजाति, १२-१४ विकलेन्द्रियजाति । (३) १५ मिश्रमोहनीय । (४) १६-१९ अप्रत्याख्यान चतुष्क, २० से २५ वैक्रीयादि षट्क, २६ नरकायु, २७ देवायु, २८ मनुष्यगतिआनुपूवि, २९ तीर्यच०आनु०, ३० दुर्भग, ३१ अनादेय, ३२ अयशकीर्ति, (५) ३३-३६ प्रत्याख्यान चतुष्क, ३७ तिर्यंचआयु, ३८ उद्योत, ३९ नीचगोत्र, ४० तिर्यंचगति । इन ४० कर्मप्रकृति योंका उदय विच्छेद होने पर मुनिपना प्राप्त होता है।
(६) ४१-४२ आहारकशरीर युग्म, ४३ स्त्यानधि, ४४ प्रचला प्रचला, ४५ निद्रानिद्रा इन ४५ प्रकृतिका उदय विच्छेद होने पर अप्रमत्त गुणस्थान प्राप्त होता है।
(७) ४६ सम्यक्त्व मोहनीय, ४७ सेवार्त, ४८ कीलिका ४९ अर्धनाराच । (८) ५०-५५ हास्यादि षट्क ।
(९) ५६ नपुंसकवेद,५७ स्त्रीवेद, ५८ पुरुषवेद,५९-६१ सं.क्रोध मान माया । (१०) ६२ सूक्ष्म सं. लोभ । (११) ६३ नाराच, ६४ ऋषभ नाराच । (१२) ६५से ८० ज्ञानावरणीय पंचक, दर्शनावरणीय चतुष्क, निद्रा, प्रचला, अंतराय पंचक । इन ८० प्रकृतिओंका उदय विच्छेद होनेसे मनुष्य केवली होता है।
(गोम्म० कर्म० गा० २६५ से २७०) केवली भगवानको ४ कर्म और ४२ उत्तर प्रकृतिका "उदय" हो सकता है, वे इस प्रकार हैं।