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[७ ] श्रा० कुन्द कुन्द स्वामी तो हिंसा, परिग्रह आदि वस्तुओं के मुकाबले में साफ साफ अध्यवसाय की ही प्रधानता बताते हैं । जैसा कि
अज्झसिंदण बंधो, सत्ते मारेहि मा व मारेहि। . एसो बंधसमासो, जीवाणं णिच्छय णयस्स ॥ २८०॥ एव मलिये अदत्ते, अबम्भचेरे परिग्गहे चेव । कीरहि अज्झवसाणं, जं तण दु वज्जद पावं ॥२८॥ वत्थु पडुन जं पुण, अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं । णहि वत्थुदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधो त्ति । २८३॥ एदाणि णस्थि जोस, अज्झवसाणाणि एगमादीणि । ते असुहेण सुहेण य, कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ॥ २६३ ॥ बुद्धि ववसानो वि य, अज्झवसाणं मदीय विराणाणं । इकठमेव सव्वं, चित्तो भावो य परिणामो॥ २६५॥ एवं ववहारणयो, पडिसिद्धो जाण णिच्छय गयेण । णिच्छय णय सल्लीणा, मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥ २६६ ॥
प्रा. कुंद कुंदजी समयसार गा० ४४३ में पाखंडलींग और गृहीलींग वगैरह में ममता रखने की मना करते ही हैं, साथ साथ सब लींगों को छोड कर सीर्फ ज्ञान दर्शन व चारित्र को ही मोक्ष हेतु मानते हैं । ओर २ दिगम्बर आचार्य भी मोक्ष प्राप्ति के लीये नग्नता पीछी अादि बाह्य भेष को नहीं, किन्तु आत्मा के गुणों को ही प्रधान मानते है । देखियेलिंगं मुइत्तु सण-णाण चरित्ताणि सेवति ॥ ४३६ ॥ दसण णाण चरित्ते, अप्पाणं झुंज मोक्खपहे ॥ ४४१॥ ! णिच्छदि मोक्खपहे सव्व लिंगाणि ॥ ४४४॥
(समयसार प्राभृत)