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[१०२ ] से नाम कर्म है, अघातिया कर्म हैं, अतएव ये तीनों प्रकार के औदारिक शरीर केवलज्ञान के बाधक नहीं हैं।
दिगम्बर-"वेद कषाय नोकर्म" तो सामनेपाली व्यक्ति का शरीर भी हो सकता है।
जैन-अपन शरीर को छोडकर सामनवाली व्यक्ति के शरीर को "नोकम्म' मानना यह भी मनमानी कल्पना ही है। इस कल्पना के आधार पर तो यह भी मानना अनिवार्य होगा, कि कभी स्त्री-रमणच्छा और पुरुष-ग्मणच्छा इन दोनो विरोधी . इच्छाओं का नोकर्म "द्रव्य पुरुष" ही हो । मगर ऐसा माना जाता नहीं है, अतः वह कोरी कल्पना ही है । वास्तव में सामने वाली व्यक्ति के बजाय अपने इन शरीरों को "नोकर्म" मानना,
और "द्रव्य वेद कषाय" न मानना यही बात दिगम्बर प्राचार्यों को अभीष्ट है । इसके अलावा द्रव्य वेद और भाव वेद के बंध कारण कौन २ हैं ? यह समस्या भी खडी हो जायगी, अतएव दिगम्बर श्रा० नेमिचन्द्रजी ने स्पष्ट कर दिया है कि "ताणं णोकम्म दव-कम्मं तु" । ( गो. गा० ७६)
दिगम्बर--'पारण समा कहिं विसमा' गो० जी० गा० २७० इस पाठ से शरीर और वेदों में विषमता भी मानी जाति है। मानपुरुष को पुरुष-वेदोदय होता है, स्त्री-वेदोदय होता है और नपुं. सक वेदोदय होता है। इसी प्रकार स्त्री को एवं नपुंसक को भी तीनों प्रकार का वेदोदय होता है। सबको तीनों तरह की भावनायें महसूस होती हैं।
जैन--यह बात भी कल्पना रूप ही है, दिगम्बर शास्त्र भी इसे नामंजूर करते हैं।
इतना हो सकता है कि कामांध व्यक्ति सजातीय विजातीय का ख्याल म रक्खे और अप्राकृतिक प्रवृति करे, किन्तु उनके