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[१०] विपक्ष में राजीमती, चन्दनयाला, सीता, सुभद्रा इत्यादि के आदर्श जीवन भी प्रसिद्ध हैं।
भक्ताम्मर श्लो० २२ में स्त्री की ही गौरवगाथा है, देवगण भी जन्मोत्सव के समय स्त्री की पूजा करते हैं, पांचा कल्याणक में स्त्री को धन्यवाद देते हैं, श्री तीर्थकर भगवान चतुर्विध संघ की ४ श्रास्थानों में से २ आस्थान स्त्रीसमाज को देते हैं, उनका "णमा तीथस्स" पाठ से नमस्कार करते और कराते हैं । स्त्रीसमाज की समानता और पवित्रता के लिये इससे अधिक प्रमाण की जरूरत नहीं है।
दिगम्बर-स्त्री, स्त्रीपने में है इस भिन्नता का क्या किया जाय।
जैन-स्त्री और पुरुष में गति जाति काय योग पर्याप्ति बंधन लेश्या संघातन संहनन संस्थान प्रसादि संज्ञित्व दर्शन ज्ञान चरित्र आदि के जरिए कुछ भेद नहीं है, गदि भेद है तो सर्फि शरीर रचना में ही "नामकर्म" के कारण भेद है। नामकर्म की पुदल विपाकी पिंडप्रकृतियां शारीरिक भेद कराती हैं ।
दिगम्बर-किन्तु पुरुषचिन्ह स्त्रीचिन्ह वगैरह तो द्रव्य वेद . है. ऐसा माना गया है।
पुरिसित्थि-संढ-वेदो-दयेण पुरिसित्थिसंहओ भावे । णामोदएण दव्वे, पाएण समा कहिं विसमा ॥२७० ॥
(गोम्मटसार, जोवकाण्ड, गा० २७०)
मान-पुरुषचिन्ह वगैरह नाम कर्म की प्रकृति जरूर है किन्तु "द्रव्य वेद' है।
जैन-यह बेबुनियाद बात है । पुरुषादि की देहरचना 'नाम कर्म के अन्तर्गत है। औदारिक के अंगोपांगादि तीन भेद हैं