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चित्ता सोहि य तेसिं, दिल्लं भावं तदा सहावेख | - विज्जदि मासा तेसिं, इत्थीसु ण संकया भाग ।। २६ ।।
( भ० कुन्दकुन्दकृत सूत्र प्रामृत, गा०२६
ग्गो देवो राग्गो गुरु गुग्गो पई तम्हा इत्थी । होदि चित्तसोही, विगा सोहि कथं अरं ॥ १ ॥
( लोकोक्ति )
जैन --- महानुभाव ! त्रुटियां तो जैसी पुरुष में हैं. बेसी ही स्त्री में हैं, फिर सिर्फ स्त्री ही मोक्ष में न जाय, यह क्यों ? तीर्थकर की मातायें, ब्राह्मी बगैरह अर्जिकायें और सीता वगैरह सतीयां ये सब पवित्रता की आदर्श मूर्तियां है, सीताजी ने अग्नि प्रवेश किया इत्यादि बलिदान कथायें स्त्रियों की सात्विकता का गान करती हैं । माने - स्त्री में ऐसी कोई त्रुटी नहीं है कि जो मोक्ष की बाधक हो ।
जिस समाज में पूजनीय तीर्थकर भगवान की शास्त्रोक्त चंदन पूजा वगैरह को देखने मात्र से ही ध्यानभंग - अस्थिरता महसूस होती है. उस समाज में नग्नता के कारण भी अस्थिरता होने का आक्षेप किया जाय तो संभवित है। किन्तु सतीस्त्रियों की कुरबानी सोची जाय तो उक्त आक्षेप निर्मूल हो जाता है ।
दिगम्बर स्त्रियों में "अनृतं, साइंस माया" इत्यादि स्वाभा विक दूषण रहे हैं, इसका क्या किया जाय ?.
जैन - स्त्रीसमाज में अधिक अज्ञानता के कारण ऐसा हो भी सकता है । किन्तु वे दूषण तो पुरुषों में भी काफी पाये जाते हैं । अधमाधम जीवन के लिये मेघमाली, दृढप्रहारी, अखाई नमुचि.... मंत्री, मुनिद्वेषी पालक, अलाउद्दीन वगैरह अनेक दृष्टांत मौजूद हैं ।