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[ ८६ ] ( भा० जिन सेन कृत आदि पुराण स० १८ श्लो. ४५) वर्णकृत्यादि भेदानां, देहे स्मिन्नऽदर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूद्रायैः, गर्भाधान प्रवर्तनात् ।। नास्ति जातिकृतो भेदः मनुष्यामां गवाश्ववत् ।
आकृति ग्रहणात्तस्मा दन्यथा परिकप्ल्यते ॥ गाय घोड़ा वगैरह में भिन्नता है, परन्तु ब्राह्मणीद जातिश्री में अन्य जातियों से ऐसी कोई भिन्नता नहीं है। वास्तव में जाति भेद कल्पना मात्र ही है।
(भा० गुणभद्रकृत उत्तरपुराण पर्व ७४) कुलजातीश्वरादि मदविध्वस्त बुद्धिभिः । सद्यः संचीयते कर्म, नीचैगति निबन्धनम् ॥ ४८ ।।
(आ० शुभचन्द्र कृत ज्ञानाणंव अ० २१ श्लो० ४८ ) देह एव भवो जन्ती, याल्लिङ्गं च तदाश्रितम् । जात्तिक्त्तद् ग्रहं तत्र, त्यत्वा स्वात्म गृहं वशेत् ।। ३६ ॥ शरीर ही जीव का संसार है, और लिंग जातियां वगेरह तो शरीर से ही सम्बन्धित रहते हैं। अतएव लिंग व जाति के अभि. निवेश को छोड़कर श्रात्मा का पक्षपाती बनना चाहिये।
(पं० आशाधर कृत सागार धर्मा मृतम् अ० ८)
सम्यग् दर्शन संपन्न मपि मातंगदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्म गूढांगारांत रौजसम ॥ २८ ॥ श्वापि देवो पि, देवः श्वा, जायते धर्मकिल्विषात् ।
कापि नाम भवेदन्या, संपद्धर्मशरीरिणाम् ॥ २६ ॥ . . सम्यक्त्व वाला एवं धर्म युक्त मातंग और कुत्ता भी प्रशंसनीय है वगैरह।