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(रस्न करम्ड श्रावकाचार श्लो. २८-१९) विप्र क्षत्रिय विट् शूद्राः प्रोक्ताः क्रिया विशेषतः।
जैनधर्मे पराः शक्ताः ते सर्व बांधवोपमाः ॥ प्राचार की विशेषता से ब्राह्मण वगैरह संज्ञाएं हैं, किन्तु धर्म में तो वे सब बन्धु के समान हैं।
(भा. ......."कृत त्रिवर्णा चार धर्म रसिक ) प्राचारमात्र भेदेन, जातीनां भेद कल्पनम् । न जातिाह्मणीयास्ति, नीयता कापि तात्वीकी ॥ गुणैः संपद्यत जाति र्गुणध्वंस विपद्यते । ...
आचरण के भेद से जाति भेद है । परमार्थ से तो ब्राह्मण श्रादि कोई नियत जानी नहीं है । गुण के अनुसार जाती बनती है । गुणों के बदल जाने पर जाति भी बदल जाती है।
(धर्म परीक्षा) अपवित्रः पवित्रो वा, सुस्थितो दुस्थिता पि वा । ध्यायेत्पंच नमस्कारं, सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१॥ अपवित्रो पबित्रोवा, सर्वावस्थां गतो पि वा। यः स्मरेत् परमात्मानं, स बाह्याभ्यंतरे शुचिः ॥ २॥ मनुष्य कैसा भी हो. किन्तु नमस्कार मंत्र के जाप से वो निश्पाप पवित्र बनता है । अपवित्र भी तर्थिकरके जाप करने से बाहिर से और भीतर से पवित्र बनता है।
(देव शास्त्र गुरु पूजा, जैन सिद्धान्त संग्रह पृ० १८४.१८५ ) गोत्र कर्म, यह जीव विपाकि प्रकृति है । नामकर्म, शरीर की भेद व्यवस्था करता है गोत्र कर्म आचरण रूप क्रिया की व्यवस्था करता है, गोत्र कर्म भाव कर्म है। "वास्तव में द्रव्या