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जी वस्त्र यथात्मानं न जीर्ण मन्यते तथा । जर्णेि स्वदेहे प्यात्मानं, नजीर्ण मन्यते बुधः ॥ ६४॥ यहाँ पर उतरार्ध ऐसा भी बन सकता है कि
शूद्रे देहे तथात्मानं न शूद्रं मन्यते बुधः
जीर्ण वस्त्र होने पर उसकी आत्मा जीर्ण नहीं मानी जा सकती है ( शुद्र देह होने से उसकी आत्मा शूद्र नहीं हो सकती है )
नयत्यात्मानमात्मैव, जन्म निर्वाण मेव च ॥ ७५ ॥
आत्मा ही आत्मा को संसार में फंसाता है और मोक्ष में ले जाता है।
जाति देहा. श्रिता दृष्टा, देह एवात्मनो भवः ॥ न मुच्यन्ते भवात्तस्मात् ते ये जाति कृताग्रहाः ॥ ८८ ॥ ब्राह्मण ही मोक्ष को पाता है इत्यादि जाति के आग्रह रखने बाला संसार में बुरी तरह भटकता फिरता है ।
जाति लिंग बिकल्पेन, येषां च समयाग्रहः । तेपि न प्राप्नुवन्त्येव परमं पदमात्मान: ॥ ८६ ॥
मैं ब्राह्मण हूँ, में नग्न हूँ, दिगम्बर हूँ, ऐसा आग्रह मोक्ष का बाधक है परम पद प्राप्ति में रोड़े लगाते है ।
( भा० पूज्यपाद कृत समाधि शतक )
न जातिर्गर्हिता काचित् गुणाः कल्याण कारणं । व्रतस्थमपि चांडालं, तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥
कोई भी जाति निन्दनीय नहीं है, गुण ही कल्याण करने वाले होते हैं । चांडाल-भंगी भी व्रत धारी होतो ब्राह्मण के समान है । चिन्हाने विजातस्प, संति नांगेषु कानिचित् । अनार्य माचरन् किंचित् जायते नीच गोचरः ॥