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[४ ] श्राहार पानी लाकर दिन दिन में ही आहार कर लेते हैं । मगर कोई मुनि उसको रखले और रात्रि भोजन करे तो वह पुलाक है।
६-मुनि रात को एक वार भोजन पान करे तो तीन उपवास अर्थात् तीन वार नमोकार मंत्र का जाप करना चाहिये।
(दिगम्बर चर्चा सागर पृ० ३२१ च० समीक्षा पृ० १२३)
भट्ट० इन्द्र नन्दी के नीतिसार श्लो० ४६ में भी रोगी साधु की परिचर्या करने का विधान है जो पात्र के जरिये साध्य है
सारांश-जैन निर्गन्थ पात्र को रक्खे । जिनके जरिये वे श्राहार पानी ला सकते हैं और दूसरे नुनिओं की भक्ति भी कर सकते हैं । इत्यादि।
जिनागम में उल्लेख है कि मुनि लोहार्यजी पात्र होने के कारण ही तीर्थकर भगवान महवीर स्वामी की आहार पानी आदि से वैया वृत्य करते थे । (प्रा०नि० गा०........"टीका)
दिगम्बर--मुनियों को दंड ( डंडा) रखना उचित नहीं है, कभी वह अधिकरण भी बन जाता है।
जैन--ठीक बात है पाप श्रमण के पास उपकरण भी अधिकरण बन जाता है, ऐसी हालत में तो दंड ही क्यों पीछी कमण्डल, पुस्तक, रुमाल और शरीर, ये सब अधिकरण बन जाते है । मुनि कुस्ति लड़ें, कमंडल पीछी या पुस्तक से दूसरे को मारे, या पुस्तक के रुमाल से किसी को बांधे तो उसके लिये शरीरादि उपकरण अधिकरण ही बन जाते है, इसमें उपकरण का क्या दोष ? इसमें तो मुनि ही दोषित हैं । जैनजगत और जैनमित्र की फाइलों में अनेक ऐसे समाचार छपे है कि जिनमें दिगम्बर मुनियों ने उपकरण को अधिकरण बनाया हो उसके प्रमाण है । तीर्थकर भगवान श्री महावीर स्वामी फरमाते हैं कि-" जे आसवा ते परिसवा जे परिसवा ते प्रासका !"