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[ ५० देनी पडती है, गुरु को बताने का और गुरु की आज्ञानुसार या गुरुदत्त आहार पाने का लाभ नहीं मिलता है और गुरु को बिना दिखाये आहार लेते २ क्वचित् स्वच्छन्दता का भी अवकाश मिलता है। पात्र के अभाव में बीमार या बूढा मुनि तो भूखा ही मरे क्योंकि उसके लिये गृहस्थ ला नहीं सकता है, साधु लाकर देता नहीं है, इस हालत में जैन धर्म की निन्दा होती है।
मान लिया जाय कि इस हालत में मुनि मरे तो देव बनेगा परन्तु यह तो केवल कल्पना मात्र ही है। यदि वह आर्तध्यान में हो तो क्या होगा ? मान लो देव बने तो भी क्या लाभ ? सटीक पंचास्तिकाय गा० ३० में इस प्रवृत्ति को अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग मानकर निषिद्ध बताई है। दिगम्बर शासन में इस प्रकार की अग्राह्य प्रवृत्ति यानि अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग की प्रधानता होने के कारण ही भट्टारक बने हैं और शास्त्री बढे हैं।
पात्र रखने से मुनि को उपरोक्त दोषों से बचाव होता है। आहार लाकर और गुरु को बताकर खाने से शिथिलता या स्वच्छं. दता नहीं आती है । दिगम्बर मुनि कमण्डल रखते हैं मगर उसमें प्रति लेखना करना दुःसाध्य है छिद्र होता है उसकी प्रतिलेखना में भी मुश्किल होती है।
७--आसन और शय्या होय तो वहाँ त्रसजीव एकदम नहीं श्रा सकता है। और यदि आजाय तो उसको त्रास न हो वैसे दूर हटाया जा सकता है।
८-चातुर्मास में जीवोत्पत्ति बहुत होती है, उनके रक्षण हेतु पाटा आदि का चौमासा में इस्तेमाल करना आवश्यक है।
-जैन मुनि को पानी की गहराई देखकर नदी पार करने की आज्ञा तो है ही, मगर पानी कितना है यह कैसे जाना