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जैन -- वास्तविक मार्ग यही है, और मुनि मांस लेते भी नहीं हैं । किन्तु भूलना नहीं चाहिये कि - जैन दर्शन में उत्सर्ग और अपवाद से सापेक्ष वस्तुनिरूपण है । दि० शास्त्र भी बताते हैं कि देशकालज्ञ स्यापि बाल वृद्ध श्रान्त ग्लान त्वानुरोधेनाऽऽहार विहारयो रल्प लेप भयेनाऽप्रवर्तमानस्याऽतिकर्कशा चरणीभूय क्रमेण शरीरं पातयित्वा सुरलोकं प्राप्योद्वांत समस्त संयमाऽमृत भारस्य तपसोऽनवकाशतयाऽशक्य प्रतिकारो महान् लेपो भवति तन्न श्रेयान् अपवाद निरपेक्षः उत्सर्गः ॥ सर्वथानुगम्यस्य परस्पर सापेक्षोत्सर्गापवाद विजृभितवृत्तिः स्याद्वादः ॥ ३० ॥
( प्रवचन सार गाथा ३० टीका )
माने उत्सर्ग और अपवाद को ख्याल में रख कर प्रवृत्ति करना, यही शुद्ध जैन दर्शन है, यही शुद्ध मुनि मार्ग है ।
दिगम्बर -- समक्त्वी को अष्ट मूल गुण में ही मांस का त्याग हो जाता है ।
जैन-- अष्ट मूल गुण की दिगम्बरीय कल्पना ही नवीन हैं अतः इस विषय में दि० श्राचार्यों का बड़ा मत भेद है । देखिये | १ - तत्रादौ श्रद्दधेज्जैनी, माज्ञां हिंसाम पासितुम् । मद्य मांस मधुन्युज्येत्, पंचक्षीरिफलानि च ॥ २॥
तान् गृहिणां मूलगुणान् स्थूल वधादि वा । फलस्थाने स्मरेद् द्युतं, मधुस्थाने इहैव वा ॥ ३ ॥ ( पं० आशाधरकृत सागार धर्मामृतं भ० २ ). २-३ स्वामि समन्तभद्रमते - ५ फल स्थाने ५ स्थूल वधादि, महापुराण मते – ५ स्थूलवधादि मद्यमांस और मधु के बजाय
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( पं० भाशाभर कृत सा० डी० [सं० १९६६).