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新 शुद्ध हृदय से उन पर विचार करूँगा एवं भूल को भूल मानूँगा । भूल स्वीकार करने में न मुझे कभी संकोच रहा है और न ब है । हाँ, भूल यदि वस्तुतः भूल हो तो !
आवश्यक दिग्दर्शन मैं अच्छी तरह लिखना चाहता था । इस और मैंने प्रारम्भ से ही विस्तार की भूमिका भी अपनाई थी । परन्तु दुर्भाग्य से स्वास्थ्य ने साथ अच्छा नहीं दिया, फलतः मुझे मन मारकर भी सिमटना पड़ा । श्रावश्यक पर मैं खुलकर चर्चा करना चाहता था, वह इच्छा पूर्ण न हो सकी। खैर, कोई बात नहीं । मैं भविष्य के प्रति सदा ही आशावादी रहा हूँ। कभी समय मिला तो मैं इस विषय पर बहुत च्छी सामग्री लेकर उपस्थित होऊँगा । इतने समय तक चिन्तन को और अधिक काश मिल सकेगा, फलतः अध्ययन अपनी स्थिति को और अधिक सुदृढ़ बना सकेगा ।
प्रस्तुत श्रमण सूत्र के सम्पादन में मेरा क्या है ? मेरा तो केवल श्रम है इधर-उधर से बटोरने का और उसे व्यवस्थित रूप देने का । प्राचीन आगम साहित्य और जैनाचार्यों का विचार प्रकाश ही मेरे लिए पथ प्रदर्शक बना है । श्राचार्य भद्रबाहु स्वामी, श्राचार्य हरिभद्र और आचार्य जिनदास आदि का तो मुझ पर बहुत ही अधिक ऋण है । और इधर जैनजगत के ख्यातनामा महान् दार्शनिक पण्डित सुखलालजी का पञ्च प्रतिक्रमण एवं स्थानक वासी जैन समाज के सुप्रसिद्ध ज्ञानाचार के साधक साहित्यप्रेमी श्रीभैरुदानजी सेठिया बीकानेर का बोलसंग्रह भी यत्र-तत्र पथ प्रदर्शक रहा है । उक्त ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का खासा अच्छा ऋण मेरी स्मृति में है । प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी रूप में किसी की किसी भी कृति से किसी भी प्रकार का सहयोग मिला हो तो मैं उन सब महानुभावों का कृतज्ञ हूँ ।
भूमिका ही तो है, अधिक लिखने से क्या लाभ ? फिर भी पाठक क्षमा करेंगे, मैं अपने कुछ स्नेही सहयोगियों को स्मृति में ले आना चाहता हूँ | श्रद्धेय जैनाचार्य गुरुदेव पूज्य श्री पृथ्वीचन्द्रजी महाराज का
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