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मदन मुनिजी ने देखा तो आप बड़े ही प्रभावित हुए । उनकी ओर का आग्रह हुआ कि इसे शीघ्र से शीघ्र पूरा कर दिया जाय । परन्तु श्राप जानते हैं जैन भिक्षु की 'जीवनचर्या' कहीं एक जगह जमकर बैठने की नहीं है । यहाँ चतुर्मास में ही थोड़ा बहुत लिखने का कार्य हो सकता है । फिर सब जगह प्राचीन और नवीन पुस्तक सामग्री भी तो नहीं मिल पाती है । विना प्रामाणिक आधार लिए केवल कल्पना के भरोसे कलम को आगे बढ़ाना, आजकल मुझे पसन्द नहीं रहा है । यही कारण है कि श्रमण सूत्र के लेखन का कार्य यथाशीघ्र प्रगति नहीं कर सका ।
अबकी बार आगरा में कुछ दिन ठहरना हुआ तो विचार श्राया कि वह कार्य पूरा कर दूँ । यहाँ साधन सामग्री भी उपलब्ध थी । कुछ दिन तो कार्य ठीक चलता रहा । परन्तु इधर दो महीने से मैं बराबर स्वस्थ रहा। सिरदर्द ने इतना तंग किया है कि अधिक क्या लिखूँ ? ये पंक्तियाँ भी सिरदर्द की दु:स्थिति में ही लिखी जा रही हैं। हाँ, तो कुछ दिन लेखन कार्य बन्द भी रक्खा, पर कुछ विशेष स्वास्थ्य लाभ न हुश्रा । और इसी बीच व्यावर संघ का अत्याग्रह होने से वहाँ के चातुर्मास के लिए स्वीकृति दे दी । अब प्रश्न यह आया कि जैसे भी हो कार्य पूर्ण किया जाय, अन्यथा अधूरा ही छोड़कर विहार करना होगा ।
हाँ, तो सिर दर्द होते हुए भी लिखने में जुटना पड़ा । इधर लिखता था और उधर मुद्रण बड़ी तीव्र गति से चल रहा था । इस वार बड़ी विकट स्थिति में मुके गुजरना पड़ा है। अतः मैं जैसा चाहता था, अथवा मेरे साथी मुझसे जैसा चाहते थे, वैसा तो मैं नहीं लिख सका हूँ । प्रारम्भ में ही अपनी दुर्बलता के लिए क्षमा याचना कर लेता हूँ । फिर भी कुछ लिखा गया है । केवल 'न' से कुछ 'हाँ' अच्छी ही होती है । हाँ, तो मैं लिख गया हूँ । अब क्या है, कैसा है, यह सब विचार करना, पाठकों का काम है । सम्भव है कहीं इधर-उधर लिखा गया हो, मूल की भावनाएँ स्पष्ट न हो पाई हों, विपर्यास भी हुआ हो, उन सबके लिए मुझे आशा है ग्रात्मीयता की पवित्र भावना से सूचनाएँ मिलेंगी और
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