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मेरे प्रभुजी की पूजा आनंद मिले...
'भत्तिए जिणवराणां खिज्जंति पुव्वसंचिया कम्म'
चौदह पूर्वो के ज्ञाता श्रुत केवली श्री भद्रबाहु स्वामी कहते हैं कि प्रभु भक्ति पूर्व संचित कर्मों का विनाश करती है। अनादि संचित कर्मयोग को तोड़ने में परमात्म भक्ति ही पूर्ण सामर्थ्यवती है। मोक्ष द्वार को खोलने की कुंजी है। इसीलिए आनंदघनजी महाराज कहते हैं____ "पूजा-पूजो रे भविक जन पूजो, प्रभु पूज्या परमानंद, जिनवर पूजो रे..." इसी का समर्थन करते हुए उपाध्याय साधुकीर्तिजी सत्रहभेदी पूजा में कहते हैं- 'मेरे प्रभुजी की पूजा आनंद मिले।'
परम वीतरागी अरिहंत परमात्मा की पूजा-भक्ति से ऐसे अनहद आनंद की प्राप्ति होती है जिसकी कोई सीमा नहीं, कोई तुलना नहीं, जिसके लिए कोई उपमा नहीं और जिसका कोई अंत नहीं। ___ मंदिर-स्थानक, पूजा-उपासना आदि हमारी दिव्य आध्यात्मिक संस्कृति के परिचायक हैं। परन्तु आधुनिक भोगवादी संस्कृति ने युवा वर्ग के मन में इन सबके प्रति अनेक प्रश्न उपस्थित कर दिए हैं। आज के वैज्ञानिक युग में अधिकांश लोग मन्दिर, प्रतिमा, पूजा-पाठ आदि के विषय में नकारात्मक सोच रखते हैं। कई लोग विधि-विधानों की बहलता तो कई लोग अपनी व्यस्तता के कारण धर्म-कर्म से दूर रहना ही पसंद करते हैं। एक वर्ग ऐसा भी है जो क्रियाओं का हार्द, रहस्य एवं ध्येय जाने और समझे बिना तोता रटन की भाँति उन्हें किए जा रहा है। तो कुछ लोग मात्र परम्परा अनुकरण या संस्कृति के निर्वाह के लिए इन्हें करते हैं। किन्तु सभी के मन में भिन्न-भिन्न विषयों को लेकर अनेक शंकाएँ हैं। यद्यपि इनका समाधान जैनाचार्य समय-समय पर करते रहे हैं, तदुपरांत वर्तमान में बढ़ती तार्किक बुद्धि, धर्म क्रियाओं के प्रति अरुचि एवं उपेक्षा भाव, मन्दिरों में बढ़ती आशातना तथा रूढ़ धारणाओं के प्रति लोगों की हठाग्रह बुद्धि के कारण जिनधर्म अनुयायियों को उचित मार्गदर्शन नहीं मिलता और चाहेअनचाहे उन्हें अविधि का अनुसरण करना पड़ता है। ___ अतुल परिश्रमी विदुषी साध्वी सौम्यगुणाजी ने अपने विराट शोध-कार्य के दौरान विधि विषयक ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए वर्तमान पीढ़ी की शंकाओं