Book Title: Shanka Navi Chitta Dharie-Shanka, Samadhan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 97
________________ द्रव्य पूजा में हिंसा का प्राधान्य या अहिंसा का ? ...47 शंका- नित्य प्रक्षाल का विधान ऐतिहासिक है या अर्वाचीन ? समाधान- यदि ऐतिहासिक सूत्रों पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि लगभग बारहवीं शती में नित्य प्रक्षाल - विलेपन आदि की परम्परा प्रारंभ हुई है। प्रबंध पारिजात के अनुसार प्रतिमा पट्टयंत्राणां कारयेत् पर्वदिवसे, सदा वा कारयेत् । मलधारणम् ।। पाषाण आदि की प्रतिमा एवं पट्ट तथा धातु के यंत्र को नित्य स्नान न करवाएँ। किसी पर्व विशेष के दिन या मैल लग जाए तो स्नान करवाएँ। चैत्यवंदन महाभाष्य के अनुसार विक्रम की 12वीं शती तक जैन मूर्तियों के विषय में यही मत प्रचलित था। उस समय नित्य स्नान न करवाकर पंचोपचारी या अष्टोपचारी पूजाएँ ही की जाती थी। कई लोगों के मन में यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि नित्य प्रक्षाल आदि क्रिया नहीं करने से आशातना तो नहीं होती ? नित्यस्नानं न जिस काल में जो व्यवहार या सामाचारी प्रचलित हो उसका पालन करने में आशातना नहीं होती। पूर्व काल में विशेष महोत्सव के अवसर पर महास्नात्र करवाया जाता था। जिसमें विशिष्ट सुगंधित द्रव्यों से प्रक्षाल किया जाता था। प्रतिदिन के प्रक्षाल का विधान नहीं था। आनंदघनजी महाराज सुविधिनाथ भगवान के स्तवन में पंचोपचारी एवं अष्टोपचारी पूजा का उल्लेख करते हैं। पंचोपचारी पूजा में तो जल पूजा का उल्लेख ही नहीं है तथा अष्टोपचारी पूजा में जल पूजा आठवें क्रम पर वर्णित है और उसमें भी जल से भरा हुआ कलश रखने का विधान था, प्रक्षाल का नहीं। अतः यह तो सुसिद्ध है कि पूर्व काल में नित्य प्रक्षाल क्रिया नहीं होती थी । यदि वर्तमान संदर्भों में विचार करें तो विवेक पूर्वक निर्णय लेना आवश्यक है। जहाँ श्रावकवर्ग स्वयं शास्त्रोक्त विधि का अनुसरण करते हों वहाँ पर नित्य प्रक्षाल अवश्य करना चाहिए। परंतु जहाँ सब काम पुजारियों के भरोसे हैं वहाँ परमात्मा की भक्ति नहीं कम्बखती होती है। इन परिस्थितियों में प्राचीन सामाचारी का अनुसरण अधिक लाभकारी प्रतीत होता है। पूज्य मुनि श्री पीयूषसागरजी म.सा. आधुनिक सुविधावादी युग में नित्य प्रक्षाल के हानियों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि पूर्वकाल की अपेक्षा आज

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