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करिए जिनदर्शन से निज दर्शन ...33 के भाव से उनके मस्तक पर फण फैलाए थे। कमठ के द्वारा किए गए अतिवृष्टि उपसर्ग में भी परमात्मा के मस्तक पर धरणेन्द्र-पद्मावती के द्वारा छत्र बनाया गया, जिस कारण अहिच्छत्रा तीर्थ की स्थापना हुई। इन्हीं प्रसंगों की स्मृति निमित्त पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा फणों से सुशोभित की जाती है। बिना फण की प्रतिमाएँ भी प्राप्त होती है। अत: फणों की अलग से पूजा करने का कोई विधान नहीं है। यदि कोई आंगी में शोभा आदि के प्रयोजन से तिलक करें तो कोई दोष भी नहीं है। फणों की शोभा हेतु प्रयुक्त केशर का प्रयोग अन्य तीर्थंकर परमात्मा की पूजा हेतु भी किया जा सकता है।
शंका- श्रावक जिनेश्वर परमात्मा की पूजा क्यों करें?
समाधान- अरिहंत परमात्मा ने ही सर्व दुःख मुक्ति एवं शाश्वत सुख प्राप्ति हेतु जिनधर्म की स्थापना की है। जो इसे धारण करता है वह श्रावक कहलाता है। उपकारियों की पूजा करना कृतज्ञ व्यक्ति का परम कर्तव्य एवं लक्षण है अतः श्रावक को परमोपकारी तीर्थंकर परमात्मा की पूजा अवश्य करनी चाहिए।
शंका- तीर्थंकर परमात्मा तो साधु-साध्वीजी के भी परम उपकारी है तो फिर वे परमात्मा की पूजा क्यों नहीं करते?
समाधान- द्रव्य दृष्टि से साधु-साध्वी जिनेश्वर परमात्मा की पूजा नहीं करते क्योंकि उनके पास स्व अधिकार युक्त कोई द्रव्य होता ही नहीं, अत: द्रव्य समर्पण के रूप में पूजा करने के वे अधिकारी नहीं है। परंतु जिनाज्ञा के पालन के रूप में वे परमात्मा की उत्कृष्ट भावपूजा करते हैं। आनंदघनजी महाराज सविधिनाथ भगवान के स्तवन में जिन आज्ञा पालन को परमात्मा की मुख्य पूजा बताते हैं। - शंका- जिनपूजा, स्नात्रपूजा, बड़ी पूजा, महापूजन आदि में साधु-साध्वी या पौषधधारी श्रावक जा सकते हैं?
समाधान- जिनपूजा, स्नात्रपूजा, महापूजन आदि में साधु-साध्वी द्वारा दर्शन करने या निश्रा प्रदान करने सम्बन्धित कोई शास्त्रोक्त निषेध प्राप्त नहीं होता। प्राचीन धर्मग्रन्थों में श्रावक वर्ग की भावोल्लास वृद्धि हेतु एवं स्वयं के सम्यगदर्शन आदि गुणों की विशुद्धि हेतु पूजन आदि विधानों में जाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। श्राद्धदिनकृत्य एवं कथारत्नकोष इस विषय में दृष्टव्य है।