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28... शंका नवि चित्त धरिये! लिए। कुछ लोग मानते हैं कि दीपक पूजा मात्र प्रकाश हेतु की जाती है परंतु आवश्यक चूर्णि के अनुसार तीर्थंकरों की दीपक पूजा कर्तव्य के रूप में करनी चाहिए। उन्होंने सिंहासन, छत्र, चामर आदि के साथ तैल समुद्गक का उल्लेख किया है, जहाँ उनका तात्पर्य दीपक पूजा से ही है। अत: यह एक शास्त्रोक्त विधान है।
आचरण शतक के अनुसार पूर्व काल में तेल के दीपक किए जाते थे। पंचोपचारी, अष्टोपचारी एवं सर्वोपचारी पूजा के अन्तर्गत दीपक का उल्लेख दीपक पूजा की अपेक्षा से ही किया गया है।
गणि कल्याणविजयजी के अनुसार देवों द्वारा कृत सिद्धायतनों की पूजा में दीपक पूजा का उल्लेख नहीं है क्योंकि दीपक प्रकाश के लिए किया जाता है और देवलोक में सतत प्रकाश रहता ही है तथा आरती भी दृष्टि दोष के निवारण के लिए की जाती है और देवताओं में दृष्टि दोष नहीं होता है।
शंका- अष्टोपचारी पूजा में प्रयुक्त गंध शब्द का तात्पर्य क्या है तथा विलेपन वास और गंध में क्या अंतर है?
समाधान- घिसे हुए केसर या चंदन के लिए शास्त्रों में 'विलेपन' अथवा 'चंदनरस' शब्द का उल्लेख मिलता है। बरास मिश्रित चंदन चूर्ण को 'वास' कहते हैं और प्रतिष्ठा कल्पों के अनुसार 'वासा: श्वेतवर्णाः' वास श्वेत होती है। वर्तमान में इसे वासक्षेप कहा जाता है। गंध का लक्षण बताते हुए आचार्य कहते हैं- “वासा एव ईषत् कृष्ण गंधाः" गंध, चंदन, अगरू, कस्तूरी, बरास, शिलारस आदि सुगंधित पदार्थों से निर्मित चूर्ण गंध कहलाता है। यह धूप के रूप में प्रयुक्त होता है।
पूर्वकाल में विलेपन पूजा एवं वास पूजा सर्वांग पर की जाती थी वहीं वर्तमान में दोनों ही पूजाएँ नवांग पर की जाती है।
. शंका-जिनपूजा में आए परिवर्तनों के वर्तमान में क्या प्रभाव परिलक्षित होते हैं?
समाधान- प्राचीन काल से अब तक जिनपूजा में आए परिवर्तनों के विषय में चिंतन किया जाए तो इसके कुछ अच्छे और कुछ बुरे दोनों ही प्रकार के परिणाम परिलक्षित होते हैं। वर्तमान जीवनशैली एवं विषम मानसिकता के कारण पूजा-विधानों की नियमबद्धता एवं नित्यता आवश्यक है। परंतु कई लोग