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26... शंका नवि चित्त धरिये !
ही तो है । परन्तु उस तिरंगे में हमने राष्ट्र की गरिमा के भावों का आरोपण कर दिया इसलिए उसके प्रति हमारे भीतर आदर एवं सम्मान के भाव उत्पन्न होते हैं।
इसी तरह जिन प्रतिमा को पत्थर की मूर्ति मात्र न मानकर जब उसमें उपकारी भाव, तारक भाव का आरोपण करते हैं तब भक्तिभाव का स्फुरण स्वतः ही हो जाता है। श्रद्धा सम्पन्न श्रावक के लिए जिन प्रतिमा मात्र पत्थर की एक कलाकृति नहीं रह जाती अपितु उसके लिए वह साक्षात परमात्मा का कार्य करती है। इन्हीं शुभ भावों के आधार पर वह संसार से मुक्ति भी प्राप्तकर सकता है।
परमात्मा के मंदिर में जाने वाला सदा शुभ भावों में रहने का प्रयत्न करता है। विषय, कषाय, वासना आदि के भाव वहाँ आकर स्वतः शान्त हो जाते हैं। इसलिए भिखारियों की भीड़ भी मंदिरों के आगे लगती है । तेरापंथी आचार्य तुलसी ने कहा है कि - " मैं तो हमेशा जाता हूँ मंदिरों में। अनेक स्थानों पर प्रवचन भी किया है। आज भीनमाल में भी पार्श्वनाथ मंदिर में गया। स्तुति गाई। बहुत आनंद आया।”
यह सत्य तो अनुभव सिद्ध है अतः सब कुछ भावों पर आधारित हैं। (जैनभारती, अंक 16-17, पृ. 23)
शंका - परवर्तीकाल में प्रचलित सर्वोपचारी पूजा एवं महास्नात्र का विधान नित्य स्नान एवं अष्टप्रकारी पूजा तक ही सीमित रह गया ऐसा क्यों ?
समाधान- जब नित्य स्नान का प्रचलन प्रारंभ हुआ था उस समय वह सत्रह भेदी पूजा, सर्वोपचारी पूजा या महास्नात्र के रूप में ही सम्पन्न किया जाता था, क्योंकि उसी में स्नान एवं विलेपन पूजा का उल्लेख मिलता था। परन्तु महास्नात्र में समय एवं द्रव्य के अधिक लगने से कम खर्च और कम समय में होने वाली लघु स्नात्र पूजाओं की उत्पत्ति हुई । आचार्यों ने महास्नात्रों का अनुकरण करते हुए लोकभाषा में लघु स्नात्र विधियों का निर्माण किया। पाँच अथवा सात बार कुसुमांजलि जिनबिंब पर चढ़ाकर कलश करने वाली लघु स्नात्र विधियों का प्रादुर्भाव लगभग चौदहवीं शती में हुआ होगा। सबसे प्राचीन जो लघु स्नात्र पूजा मिलती है वह देवपाल कवि कृत है एवं भाषा के आधार पर वह पन्द्रहवीं शती के बाद की रचना प्रतीत होती है। अतः अर्वाचीन काल के प्रारंभ में लघु स्नात्र का प्रचलन अधिक रहा होगा।