Book Title: Shanka Navi Chitta Dharie-Shanka, Samadhan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 72
________________ 22... शंका नवि चित्त धरिये ! भी इसके मुख्य कारण हैं। यदि 'अधिकस्य अधिकं फलं' को ध्यान में रखकर बढ़ते हुए विधानों को उल्लास भाव से किया जाए तो यह विधान आत्म कल्याणकारी सिद्ध हो सकते हैं। वर्तमान भौतिक परिप्रेक्ष्य में इनकी नित्यता एवं नियमबद्धता परमावश्यक है। शंका- पूर्व काल में नित्य प्रक्षाल का विधान नहीं था तो फिर परवर्ती आचार्यों ने नित्य स्नान एवं विलेपन का विधान क्यों किया? समाधान- पूर्व काल से जैन धर्म की पूजा पद्धति में, पंचोपचारी अष्टोपचारी एवं सर्वोपचारी पूजाएँ विशेष प्रचलित रही है। इनमें से प्रथम की दो पूजाओं में जल पूजा के रूप में स्नान का विधान नहीं था। अष्टोपचारी पूजा में जल पूजा आठवें क्रम पर थी उसमें भी मात्र जल कलश को भरकर रखने का विधान था। उस समय पर्व विशेष या महोत्सव आदि के अवसर पर स्नान क्रिया का विराट आयोजन रखा जाता था। परन्तु धीरे-धीरे पर्व विशेष में होने वाली स्नान क्रिया को जल पूजा के रूप में प्रथम स्थान मिल गया एवं पूजा विधानों में भी सर्वोपचारी पूजा का प्रचलन अधिक बढ़ गया था। इसी के साथ इसका एक मुख्य कारण था बारहवीं शती के समय उद्भव में आई अचलगच्छ परम्परा। उन्होंने प्रचलित अन्य परम्पराओं को मानने से इंकार कर दिया था। उनके अनुसार पूर्ववर्ती सभी परम्पराएँ अधिकांशत: सूत्र विरुद्ध एवं शिथिलाचारी आचार्यों द्वारा प्रवर्तित थी। उन्होंने आचार्य हरिभद्रसूरि, आचार्य अभयदेवसूरि आदि द्वारा स्वीकृत आचारों को अस्वीकृत कर दिया था। इसी क्रम में उन्होंने जिन पूजा विधानों में पंचोपचारी एवं अष्टोपचारी पूजा को अमान्य कर मात्र सत्रहभेदी पूजा या सर्वोपचारी पूजा को ही शास्त्रोक्त स्वीकार कर उसका प्रवर्तन करवाया। सत्रहभेदी पूजा में जल स्नान का विधान होने से अचलगच्छीय आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित मंदिरों में नित्य स्नान एवं विलेपन क्रिया होने लगी। इसी के अनुकरण एवं आकर्षण वश अन्य मंदिरों में इसका प्रचलन बढ़ने लगा। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे यह एक नित्य विधान बन गया। एक अन्य कारण जो मध्यम काल के आचरणा को देखकर प्रतिभासित होता है वह है चैत्यवासी परम्परा का आधिपत्य। चैत्यवासी मनियों ने चैत्यालय सम्बन्धी विधि-विधानों एवं कार्यविधियों में रुचि लेते हुए उनमें वर्धन किया। कई विद्वद मुनियों की कृतियाँ तो सुविहित आचार्यों ने भी स्वीकृत की। इन

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