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जिन प्रतिमा पूजनीय क्यों ? ... 13
पुण्य का उपार्जन होता है, इस भव और परभव में यश, गौरव और समस्त भोगों की प्राप्ति होती है तथा अन्त में सर्व कर्मों का क्षय होने से मोक्ष फल की उपलब्धि होती है।
शंका- जब साक्षात अरिहंत परमात्मा एवं साधुओं को महिलाएँ स्पर्श नहीं करती तो फिर जिन प्रतिमा की पूजा महिलाएँ कैसे कर सकती है? क्या इसमें संघट्टे का दोष नहीं लगता?
समाधान- सचेतन जीवित व्यक्ति तथा फोटो या मूर्ति में अन्तर होता है । सचेतन व्यक्ति जहाँ ज्ञान आदि उपयोग से युक्त होता है वहीं मूर्ति अचेतन होने से उपयोग आदि से रहित होती है। जैन शास्त्रों में नर-मादा स्पर्श का निषेध सदाचार, ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा आदि के हेतु से किया गया है। छद्मस्थ प्राणी में काम विकार, विषय वासना, राग द्वेष आदि संभव है । अचेतन द्रव्य एवं सचेतन वीतराग परमात्मा में यह विकार असंभव है।
जीवित तीर्थंकर में संघट्टे का निषेध व्यवहार नय की अपेक्षा किया गया है ताकि छद्मस्थ श्रमण-श्रमणी उसे निर्दोष न मान लें । मूर्ति के स्पर्श में यह दोष संभव नहीं है इसीलिए प्रतिमा के स्पर्श में संघट्टा नहीं माना है। यदि इसमें संघट्टा माने तो पत्र-पत्रिका, पुस्तक आदि में भी चित्रों का स्पर्श होने पर संघट्टा मानना होगा। अतः मूर्ति पूजा में संघट्टे की मान्यता निराधार है।
शंका- जिन प्रतिमा को नहीं मानने में क्या हानि है ?
समाधान- सत्य को सत्य नहीं मानना एक प्रकार का मिथ्यात्व है अतः सर्वप्रथम तो इससे सम्यक्त्व दूषित होता है। जिन प्रतिमा रूपी कल्याणकारी शाश्वत आलंबन को न मानने से व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में हानियाँ होती है। जैसे कि
जिन को अमान्य करने पर तत्सम्बन्धी आगम भी अमान्य हो जाते
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पूजा
हैं, इससे ज्ञान एवं ज्ञानियों की आशातना होती है।
• स्वमत की पुष्टि हेतु प्रतिमा पूजन सम्बन्धी आगम पाठांश को बदलने उत्सूत्र प्ररूपणा का दोष लगता है।
से
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मूर्ति को न मानने से तीर्थ भूमियों की स्पर्शना का लाभ नहीं मिलता। तीर्थ यात्रा के अनेक लाभों से भी वंछित रह जाते हैं।
• जिन मंदिर न जाने से प्रभु दर्शन एवं परमात्म भक्ति के लाभ से महरूम