Book Title: Sattavihanam
Author(s): Virshekharsuri
Publisher: Bharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
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२] मुनिश्रीवोरशेखर विजयरचिते सत्ताविहाणे | अधि-द्वार. सत्पद। या इहुत्तरपयडि- सत्तार पर्याड ठाण - भूगारा 1 पयणिक्खेवो वडी, पण अहिगारा जहाकमसो ॥ १६१॥ तेसु पयडिआईसु, अहिगारेसु हवन्ति दाराणि । पणरस चउदस तेरस, तिष्णि य तेरस जहाक्रममो ।।१९२।। (हे. वू.) "या" त्ति गाहाजुगलं कंठमहिगारणाम-तद्दारसंखदरिसगं ।। १११-१९२॥
| अथ प्रथमप्रकृत्यधिकारद्वाराणि || इयाणि पढमडिअहिगारदाराणि भणदिअह विष्णेयाणि पयडि अहिगारम्मि पढमम्मि संतपर्यं । सामित्तसाइ आई, कालंतरमणियाता य ॥ १६३॥ भंगविचयो उ भागो, परिमाणं खेनकोसणा कालो । अंतरभावtपबहू, पणरमदाराणि जहकमसो ॥१६४॥ (हे. चू.) "अह' त्ति गाहादुगं पणरसदारणामणिमगं पाठसिर्द्ध ।। १६३-१६४ ।।
॥ अथ प्रथमं सत्यद्वारम् 1 संपदं संतपयदारं कहिज्जदि
॥ १९५॥
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सत्ता-सत्ताऽस्थि पर्याड अडवण्णा हियस्यस्स ओघव । तिणरदुपर्णिदितमपण-मणवय का उर लवि उवेसु कम्मतिवेअकसाय - चउगतिणाणति अणाणअजएस' तिदरिसणछलेसाभवि-सम्मुवसमवे अगेसु तहा ॥१९६॥ मिच्छे सणिम्मि तहा, आहारियरेसु होइ सत्तेचं | ( गीतिः ) संजम - समइअ - छेए-ऽवि परे विंति विण णिरयतिरियाऊ || १६७ || णिरये पढमाइणिरय- तिगे सुराउं विणा जिणसुराऊ । तुरि श्रइतिणिरयेसु दु आउजिणं विण चरमणिरये ॥ १९८ ॥
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