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(११) ब्रह्मचारी श्री सीतलप्रसादजीकी भूमिका ज्यौंकी-त्यौं रखी गयी है और विषयसूची तो है ही।
श्री कुलभद्राचार्यका कोई समय या परिचय प्राप्त नहीं होता, फिर भी श्रीमान् ब्र. सीतलप्रसादजीके अभिप्राय अनुसार 'यह बड़े अनुभवी आत्मज्ञानी आचार्य थे । पर वे कब हुए इसका कोई पता नहीं चलता है, तथापि १००० वर्ष पूर्वके होंगे ही ऐसा रचनापरसे अनुमान होता है' ऐसा लिखा है।
पं. दौलतरामजी कासलीवालने इस ग्रंथपर जो वचनिका लिखी है वह वि. सं. १८०५ की है । (देखिए डॉ. नेमिचन्द्रजी शास्त्रीका 'तीर्थंकर महावीर
और उनकी आचार्य-परम्परा' भाग ४, पृ. २८२) डॉ. कस्तूरचन्दजी कासलीवालने अपने ग्रंथ 'महाकवि दौलतराम कासलीवाल : व्यक्तित्व और कृतित्व" की प्रस्तावनामें वचनिकाके अतिरिक्त इसे ‘सार चौबीसी' नाम देकर कविकी पद्यात्मक आध्यात्मिक कृति बताया है; परन्तु यह पद्यात्मक कृति तो १०४ पद्योंमें ही समाप्त हो गयी है जबकि मूल सारसमुच्चय ग्रंथ ३२८ श्लोकोंमें समाविष्ट है । पद्यात्मक कृतिका १०४वाँ अन्तिम दोहा इस प्रकार है -
सार समुच्चै यह कह्यो, गुरु आज्ञा परवांन । आनंद सुत दौलतिनैं, भजि करि श्री भगवान ॥१०४॥
(प्रस्तावना पृ. ८२,८३) इससे लगता है कि पं. दौलतरामजी कासलीवालने भाषा वचनिकाके अतिरिक्त भाषा पद्यमय रचना भी संक्षेपमें अपनी इच्छानुसार लिखी है । ___सम्यक् जो भी हो, यह ‘सारसमुच्चय'-ग्रंथ एक विशिष्ट रचना तो है ही।
यहाँ प्रसन्नताकी बात है कि ग्रंथप्रकाशनकी प्रेरणा बोरीवली-मुंबई निवासी एक धर्मानुरागिणी मुमुक्षु बहनका उल्लासपूर्वक अर्थसहयोग भी प्राप्त हुआ है । इन नम्र एवं शांतपरिणामी बहनश्रीका हम हृदयसे आभार मानते हैं और आशा करते हैं कि भविष्यमें भी आपका उत्तम सहयोग श्रुतोद्धारके कार्यमें अवश्य प्राप्त होता रहेगा ।
१. डॉ. कस्तूरचन्दजी कासलीवालकी प्रस्तावनाका पृ. ४१,४२भी द्रष्टव्य है ।
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