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प्राक्कथन
श्रीमत्कुलभद्राचार्य-विरचित प्रस्तुत ग्रंथ 'सारसमुच्चय' वैराग्यका अनुपम शास्त्र है । ३२८ श्लोकीय इस ग्रंथका प्रत्येक श्लोक वैराग्यभावको प्रेरित करता है। __ पूज्य ब्र. सीतलप्रसादजीकृत अनेकानेक ग्रंथोंकी टीकाओंमें प्रस्तुत 'सारसमुच्चय'की टीका भी सम्मिलित है । उन्होंने यह टीका वीर नि. संवत् २४६१ (ई.सन् १९३५) में दो मासमें ही पूर्ण कर दी थी और उसका प्रथम संस्करण शीघ्र ही वीर नि. सं. २४६२ (ई. सन् १९३६) में दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरतसे प्रकट हुआ । ३० वर्षों बाद वीर नि. सं. २४९२ (ई. सन् १९६६) में दूसरी आवृत्तिके रूपमें श्रुतरसिक ला० पन्नालालजी आर्किटेक्ट, नयी दिल्लीने श्रीमान् पं० परमानन्दजी शास्त्रीकी देखरेखमें इसे प्रकाशित कराया था। इसको भी आज ३४ वर्ष बीत चुके हैं।
ग्रंथकी उपयोगिताको देखते हुए अब इसका संशोधित नया प्रथम संस्करण श्री गणेश वर्णी दि. जैन संस्थानकी ओरसे प्रकट हो रहा है इसका हमें आनन्द है।
प्रस्तुत संस्करणकी विशेषता यही है कि विभिन्न चार प्रतियोंके मिलानसे परस्पर पाठ संशोधन एवं अन्य अशुद्धियोंका परिमार्जन करनेका प्रयत्न किया गया है । इन चार प्रतियोंमें दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरतकी प्रथमावृत्ति, ला. पन्नालालजी, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित द्वितीयावृत्ति, श्रीवर्द्धमानसत्य-नीति-हर्षसूरि जैन ग्रन्थमाला-पुष्प ९ के रूपमें सांडेराव (राजस्थान) से प्रकट की गयी तीसरी प्रति (जो मूलमात्र, खुले पन्नोंमेंशास्त्राकार है और जिसमें आरम्भमें ग्रंथका नाम “वैराग्य सारसमुच्चय" रखकर अन्तमें 'सारसमुच्चय'का ही उल्लेख है) और चौथी प्रति माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमालाके अन्तर्गत ग्रंथक्रमाङ्क-२१ से प्रकाशित 'सिद्धान्तसारादिसंग्रह'का उपयोग हुआ है । यथास्थान टिप्पणमें आवश्यक पाठान्तर भी दिये गये हैं । ग्रंथमें मुख्यरूपसे श्लोक क्रम १३०, १५२, १९१, २५५, २८७, २८९, ३०५ और ३२६ पर विशेष ध्यान दिया गया है । ग्रन्थके अन्तमें अकारादि वर्णानुक्रमसे श्लोकसूची भी दे दी गयी है । आरम्भमें
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