Book Title: Sara Samucchaya
Author(s): Kulbhadracharya, Shitalprasad
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 9
________________ (८) नास्ति कामसमो व्याधिर्नास्ति मोहसमो रिपुः । नास्ति क्रोधसमो वह्निर्नास्ति ज्ञानसमं सुखम् ॥२७॥ भावार्थ :- कामभावके समान कोई रोग नहीं है, मोहके बराबर कोई शत्रु नहीं है, क्रोधके समान कोई आग नहीं है और ज्ञानके समान कोई सुख नहीं है। जरामरणरोगानां सम्यक्त्वज्ञानभैषजैः । शमनं कुरुते यस्तु स च वैद्योऽविधीयते ॥४३॥ भावार्थ :- जो कोई सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी औषधिको सेवन कराके जरा मरण रोगोंको शांत कर देता है वही वैद्य कहा गया है । अज्ञानी क्षिपयेत्कर्म यजन्मशतकोटिभिः । तज्ज्ञानी तु त्रिगुप्तात्मा निहन्त्यंतर्मुहूर्ततः ॥१८८॥ भावार्थ :- अज्ञानी जितने कर्मोंको करोड़ों जन्मोंमें नाश करेगा उतने कर्मोंको मन, वचन, कायकी गुप्तिको पालनेवाला आत्मज्ञानी एक अंतर्मुहूर्तमें नाश कर सकेगा। निर्ममत्वं परं तत्त्वं निर्ममत्वं परं सुखं । निर्ममत्वं परं बीजं मोक्षस्य कथितं बुधैः ॥२३४॥ भावार्थ :- ममतारहित भाव परम तत्त्व है । यही परम सुख है, इसीको ज्ञानियोंने मोक्षका उत्तम बीज कहा है । संतोषं लोभनाशाय धृतिं च सुखशान्तये ।। ज्ञानं च तपसां वृद्धौ धारयन्ति दिगम्बराः ॥२४८॥ भावार्थ :- दिगम्बर मुनि लोभके नाशके लिए संतोषको, सुख शांतिके लिए धैर्यको और तपकी वृद्धिके लिए ज्ञानको धारते हैं । वरं सदैव दारिद्र्यं शीलैश्वर्यसमन्वितम् । न तु शीलविहीनानां विभवाश्चक्रवर्तिनः ॥२८२॥ भावार्थ :- शील आदि चारित्रकी सम्पदा जिनके पास है उनको सदा दारिद्र्य रहे तो भी अच्छा है, परन्तु शीलादि चारित्ररहित हो तो चक्रवर्तीकी विभूति भी ठीक नहीं है। आत्माधीनं तु यत्सौख्यं तत्सौख्यं वर्णितं बुधैः । पराधीनं तु यत् सौख्यं दुःखमेव न तत्सुखं ॥३०१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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