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सिद्धसेनकी अश्वसर्जक रूपमे प्रसिद्धि और सन्मतिकी दर्शन-प्रभावक शास्त्र के रूपमे ख्याति ये दोनो वाते हमे इतने निश्चित अनुमानकी ओर ले जाती है कि यह सिद्धसेन जिनदाससे पहले हुए है। परन्तु पहले यानी कितने पहले, यह प्रश्न अव होता है। क्या सिद्धसेन जिनमद्रके समकालीन होगे या उनसे थोडे ही समय पहले अथवा काफी लम्बे समय पहले हुए होगे ? सिद्धसेन और जिनभद्र दोनों समय होने पर भी भिन्न-भिन्न विरोधी मतके थे। जिनभद्र आगमिक परम्पराके रसक रूपमे प्रतिष्ठित थे, तो सिद्धसेन नवीन वादके स्थापक ताकिकके रूप में तथा सस्कृतम आगमोका उल्था करनेवालेके रूपमे प्रख्यात थे। जिनदासने चूणि आदि साहित्य आगमोंपर लिखा है, अत यह स्वाभाविक है कि उनका झुकाव आगमिक परम्पराकी और विशेष हो। जिनमद्रकी आगमिक परम्परा के उत्तराधिकारी जिनदास जिनभद्रके ही एक प्रतिस्पर्धी दूसरे विद्वान्का तथा उनकी कृतियोका अतिमानपूर्वक उल्लेख करते है, इसपरसे इतना तो सूचित होता ही है कि सिद्धसेन जिनभद्र के समकालीन तो क्या, निकट पूर्ववर्ती भी न होने चाहिए। महत्त्वकी बातमे विरोव रखने वाले दो आचार्य सिद्धसेन और जिनभद्र के बीच इतना समय अवश्य ही बीता होगा, जिससे कि जिनदास भी सिद्धसेन और उनकी कृतिको બોર માનપૂર્વક તેલને મે હો ! તોડીન સામ્રવાયિક વાતાવરણને લતે દુણ ऐना होने में सौ-दो सौ वर्ष लगे हो, तो ऐसी कल्पना तनिक भी अनुचित प्रतीत नही होती। अतएव जिनदासको निशीयचूणिमे आये हुए उक्त उल्लेख हमे ऐसा निश्चय करनेकी और प्रेरित करते है कि यह बहुत स भव है कि सिद्धसेन जिनदाससे डेढ सौ-दो सौ वर्ष पहले हुए हो। ___ अब परम्पराका विचार करे । सभी परम्पराएँ सिद्धसेनको विक्रमके समन कालीन तया उज्जयिनीके निवासी मानती है। परन्तु विक्रम कौन और कई हुआ, यह भारत के इतिहासमें एक बहुत बड़ा विवादग्रस्त प्रश्न है । फलत यह विक्रमकी परम्परा हमे समय-निर्णयमे वहुत उपयोगी नही हो सकती।
१. जिनभद्रने अपने विशेषावश्यकभाष्यको रचना पूर्ण की, उसके पश्चात ठीक ६७ वर्षपर जिनदासने अपनी नन्दीणिको रचना समाप्त की थी ऐसा इन दोनो के स्वयं निदि समयके आधारपर निश्चित हो सका है। इस प्रकार देखें तो ये दोनो एक-दूसरेके बहुत निकटकालीन कहे जा सकते है । देखो 'भारतीय विद्या निबन्ध संग्रह' ( ई० १९४५ ) में मुनि श्री जिनविजयजीका लेख पृ० १९१ ।