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रुपये व्याकरणीय नही और असद्रूपसे भी व्याकरणीय नही । अतएव अनुभयका दूसरा पर्याय अवक्तव्य हो जाता है ।
इस अवक्तव्यमे और वस्तुकी सर्वया अवक्तव्यता के पक्षको व्यक्त करनेवाले अवक्तव्यमे जो सूक्ष्म भेद है उसे व्यानमे रखना आवश्यक है । प्रथमको यदि सापेक्ष अवक्तव्य कहा जाय, तो दूसरेको निरपेक्ष अवक्तव्य कहा जा सकता है । जब हम किसी वस्तुके दो या अधिक धर्मोको मनमे रखकर तदर्थ शब्दको खोज करते है, तव प्रत्येक धर्मके वाचक भिन्न-भिन्न शब्द तो मिल जाते है, किन्तु उन शब्दोके क्रमिक प्रयोगसे विवक्षित सभी धर्मोका दोव युगपत् नही हो पाता। अतएव वस्तुको हम अवक्तव्य कह देते हैं । यह हुई सापेक्ष अवक्तव्यता । दूसरे निरपेक्ष अवक्तव्यसे यह प्रतिपादित किया जाता है कि वस्तुका पारमार्थिक रूप ही ऐसा है जो शब्दका गोचर नही, अतएव उसका वर्णन शब्दसे हो ही नही सकता ।
1 स्याद्वाद के भगोमे जो अवक्तव्य भग है, वह सापेक्ष अवक्तव्य है । ऐसा प्रतीत होता है कि वक्तव्यत्व- अवक्तव्यत्व दो विरोधी धर्मोको लेकर जैनाचार्योने स्वतंत्र सप्तभगीकी जो योजना की है, वह निरपेक्ष अवक्तव्यको लक्षित करके की गयी है । अतएव अवक्तव्य शब्दका प्रयोग सकुचित और विस्तृत ऐसे दो अर्थमे होता है, ऐसा मानना चाहिए । जब विवि और निषेव उभयरूप से वस्तुकी अवाच्यता अभिप्रेत हो तव अवक्तव्य सकुचित या सापेक्ष अवक्तव्य है और जब सभी प्रकारोका निषेध करना हो तब विस्तृत और निरपेक्ष अवक्तव्य अभिप्रेत है ।
दार्शनिक इतिहास मे उक्त सापेक्ष अवक्तव्यत्व नया नही है । ऋग्वेदके ऋषिने जगत् के आदिकारणको सद्रूप और असद्रूपसे अवाच्य माना है, क्योंकि उनके सामने दो ही पक्ष थे, जब कि माण्डूक्यने चतुर्थपाद आत्माको अन्त - अज्ञ ( विवि ), वहिष्प्रज्ञ (निषेव ) और उभयप्रज्ञ ( उभय ) तीनो रूपसे अवाच्य माना, क्योंकि उनके सामने आत्मा के उक्त तीनो प्रकार थे । किन्तु माध्यमिक दर्शन के दूत नागार्जुनने वस्तुको चतुष्कोटिविनिर्मुक्त कहकर अवाच्य माना, क्योंकि उनके सामने विधि, निषेव, उभय और अनुमय ऐसे चार पक्ष थे। इस प्रकार सापेक्ष वक्तव्यता दार्शनिक इतिहास मे प्रसिद्ध ही है । इसी प्रकार निरपेक्ष अवक्तव्यता भी उपनिषदोंमें प्रसिद्ध है । जब हम 'यतो वाचो निवर्तन्ते' जैसे वाक्य सुनते है तथा जैन आगममे जब 'सव्वे सरा नियदृत्ति' जैसे वाक्य सुनते हैं, तब यह स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ निरपेक्ष अवक्तव्यताका ही प्रतिपादन हुआ है ।
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