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संजय के मत मे और स्वाद्वादमे भेद यह है कि स्याद्वादी प्रत्येक भंगका स्पष्ट रूपसे निश्चयपूर्वक स्वीकार करता है, जव कि सजय मात्र भगजालको रचना करके उन भगोके विषयमे अपना अज्ञान ही प्रकट करता है । सजयका कोई निश्चय ही नही । वह भगजालकी रचना करके अज्ञानवादमे ही कर्तव्यको इतिश्री समझता है, तब स्याद्वादी भ० महावीर प्रत्येक भगके स्वीकारको आवश्यकता बताकर विरोधी भगोके स्वीकार के लिए नयवाद अपेक्षावादका समर्थन करते है । यह तो सम्भव है कि स्याद्वादके भगोको योजनामे सजयके भगवादसे भ० महावीरने लाभ उठाया हो, किन्तु यह स्पष्ट है कि उसमें उन्होने अपना स्वातंत्र्य भी बताया है, अर्थात् दोनोका दर्शन दो विरोधी दिशामे प्रवाहित हुआ है |
ऋग्वेद से भ० बुद्धपर्यन्त जो विचारवारा प्रवाहित हुई है उसका विश्लेषण किया जाय, तो प्रतीत होता है कि प्रथम एक पक्ष उपस्थित દુબા, ખંતે સત્ ચા બસ।। સકે વિરોધમે વિપક્ષ ત્યિત ઝુબા મૃત્ या सत्का । तब किसीने इन दो विरोधी भावनाओको समन्वित करने की दृष्टिसे कह दिया कि तत्त्व न सत् कहा जा सकता है और न असत्, वह तो अवक्तव्य है । और किसी दूसरेने दो विरोधी पक्षोको मिलाकर कह दिया कि वह सदसत् है । वस्तुत विचारधाराके उपर्युक्त पक्ष, विपक्ष और समन्वय ये तीन क्रमिक सोपान हैं । किन्तु समन्वयपर्यन्त आ जाने के बाद फिरसे समन्वयको ही एक पक्ष बनाकर विचारवारा आगे चलती है, जिससे सम न्वयका भी एक विपक्ष उपस्थित होता है। और फिर नये पक्ष और विपक्षके समन्वयको आवश्यकता होती है । यही कारण है कि जब वस्तुकी अवक्तव्यतामे सत् और असत्का समन्वय हुआ, तब वह भी एक एकान्त पक्ष वन गया । ससीरकी गतिविधि ही कुछ ऐसी हैं, मनुष्यका मन ही कुछ ऐसा है कि उसे एकान्त सह्य नही । अतएव वस्तुकी ऐकान्तिक अवक्तव्यता के विरुद्ध भी एक विपक्ष उपस्थित हुआ कि वस्तु ऐकान्तिक अवक्तव्य नही, उसका वर्णन भी शक्य है । इसी प्रकार समन्वयवादीने जब वस्तुको सदसत् कहा, तब उसका वह समन्वय भी एक पक्ष वन गया और स्वभावत उसके वित्रा विपक्षका उत्थान हुआ । अतएव किसीने कहा कि एक ही वस्तु सदसत् है कि तबकती है, उसमे विरोध है । जहाँ विरोध होता है, वहाँ सशय लिखित किनी विहै । जिस विषयमे संशय हो, वहाँ उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान
१. संयुत्तनिकाय अतएव यह मानना चाहिए कि वस्तुका सम्यग्ज्ञीन नही । ही कह सकते, वैसा भी नही कह सकते । इस सशय