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મીર મતને ક અપને સીસનપર વિડર સ્વી મોર પ્રયાળ વિયા देवाकर भी आचार्यपदपर आने के बाद जनशासनकी प्रभावना करते हुए થ્વીપર વિવરને જો
वपनसे ही संस्कृत के अभ्यासी सिद्धसेनने लोगोके तानो तया जन्म-स्वभावसे प्राकृत भाषा अनादरके कारण एक बार जन प्राकृत सिद्धान्तका संस्कृत भाषाम उल्था करने का विचार किया और यह विचार उन्होने सधको कह सुनाया। सपके - अगुओने आवेशमे आकर दिवाकरसे कहा कि “आपके जैसे युगप्रधान आचार्योको भी प्राकृत भापाकी ओर अरुचि पैदा हो, तो फिर हम-जसोको तो बात ही क्या ? " हमने परम्परासे सुना है कि पहले चौदह पूर्व सस्कृतमे थे और इसीलिए वे : साधारण बुद्धिवालो के लिए अगम्य थे। यही कारण है कि समय बीतनेपर वे नपट हो गये । इस समय जो ग्यारह अग है, उन्हें सुधर्मास्वामीने बालक, स्त्री, ' मूढ और मूर्ख लोगो५२ अनुग्रह करने के लिए प्राकृत भाषामे गूंथा है । ऐसी प्राकृत मापापर आपका अनादर कसे योग्य कहा जा सकता है ?" अगुजओने । आगे चलकर दिवाकरसे यह भी कहा कि "आप प्राकृत आगमका संस्कृतमें उल्या । करनेके विचार एव पपनसे वहुत दूषित हुए है। स्थविर ( शास्त्रज्ञ वृद्ध । विद्वान् ) इस दोषका शास्त्र द्वारा प्रायश्चित्त जानते है।" स्थविरोने कहा कि - "इस दोषकी शुद्धिके लिए पाराविक प्रायश्चित्त करना चाहिए । इसमें जैन वेश छुपाकर और गच्छका परित्याग करके बारह वर्षपर्यन्त दुष्कर त५ करना पडता है। ऐसे पाराचिक प्रायश्चित्तके बिना ऐसे महान् दोषकी शद्धि कभी भी नही हो सकती। अलवत्ता, यदि बारह वर्षके भीतर भी शासनकी कोई महान् प्रभावना की जाय, तो अवधि पूर्ण होनेसे पूर्व भी अपने असली पदपर आप लिये जा सकते है।" स्थविरोका यह प्रायश्चित्तविधान सुनकर सरलस्वभावी दिवाकरने सघसे पूछकर और अपना साघुपद गुप्त रखकर गच्छका परित्याग किया। इस स्थितिम धूमते हुए उनके सात वर्ष बीत गये। कभी वह उज्जयिनी नगरीमे आये। उन्होने राजमन्दिरके द्वारपर पहुंचकर दरवानसे कहा कि “जा, तू राजाको मेरी ओर से इस तरह कह कि
'दिदृक्षुभिक्षुरायातो वारितो द्वारि तिष्ठति ।
हस्तन्यस्तचतु श्लोक किमागच्छतु गच्छतु ।। १२४ ।। अर्थात् हाथमें चार लोक लेकर एक भिक्षु आपके दर्शनकी इच्छासे आया है और द्वारपालो द्वारा रोके जाने से दरवाजेपर खड़ा है। कहा कि वह आये अथवा जाय ?